पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२८२

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२०२ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय इस प्रकार तीर्थ-यात्रा की सफलता वहाँ पर साधुओं के साथ सत्संग करने पर ही अवलंबित है, नहीं तो उससे स्पष्ट हानि है। जिस जगह पर साधु रहा करते हैं वही स्थल पवित्र है और वहीं पर लोगों को तीर्थ यात्रा के लिए जाना चाहिए। दादू कहते हैं कि “साधुलोग उस बड़े दर्बार की ओर से उपहार वितरण करते हैं इसलिए जहाँ कहीं भी वे रहें वहीं पर तुम राम-रस का स्वाद पा सकते हो।"x परन्तु सच्चे साधू को पहचानने में एक व्यावहारिक कठिनाई आ पड़ती है। साधू इसलिए साधू नहीं समझा जा सकता कि वह कुछ विशेष ढंग के वस्त्र वा चिह्न धारण किये है, बल्कि, केवल इस कारण कि, उसने आध्यात्मिक अनुभव प्राप्तकर लिया है जो ऊपर से लक्षित होने की बात नहीं है । किन्तु निर्गुण लोगों ने कुछ स्पष्ट चिह्न भी बतला दिये हैं जिनके द्वारा हम एक सच्चे साधू को झूठे साधू से अलग कर सकते हैं । सबसे पहली विलक्षण बात साधुनों में यह पाई जाती है कि वे अपनी स्थून प्रकृति पर विजय प्राप्त कर एक मानसिक संतुलन की स्थिति में पहुँच जाते हैं जिसके सामंजस्य में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती। वह किसी प्रकार भी सांसारिक प्रलोभनों-द्वारा प्रभावित नहीं. होता। वह मेरा और तेरा के स्तर से ऊँचा होता है और स्तुति एवं निन्दा उसके लिए एक समान है। न तो वह प्रशंसा सुनकर श्राह्लादित होता है और न निंदा से नाराज ही होता है। उसमें धैर्य की अपार शक्ति रहा करती है जिस कारण केवल शारीरिक कष्ट ही नहीं, अपितु, अनेक अपमानों को भी वह सहन कर लेता है। किसी पाखंडी को जो बिना आवश्यक अनुभव के भी अपने को साधु होना प्रदर्शित करता है और जिसमें सहिष्णुता की शक्ति नहीं, कबीर ने संबोधित करके कहा x दादू दत दरबार का, को साधू बाँट प्राइ। तहाँ राम रस पाइए, जॅह साधू तहँ जाय ॥ १०१ ।। बानी १, पृ० ६७ । 2