सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२०४ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय जो मनुष्य श्रद्धा के साथ पहुंचता है उसे प्राध्यात्मिक भोज में सम्मिलित होने का आनन्द मिलता है किंतु जो कोई बिना श्रद्धा के श्राता है उसे परमार्थतः भूखा ही लौट जाना पड़ता है। इसमें साधू का कोई दोष नहीं, क्योंकि उसका जीवन तो अनवरत दान का ही जीवन है। कबीर कहते हैं कि-"साधू लोग बादलों की भाँति उपकारी हुश्रा करते हैं। वे दयाकी वृष्टि करके दूसरों के तापों को अपने संसर्ग-द्वारा शान्त कर देते हैं । वृक्ष अपने फलों को श्राप नहीं खाया करते और न नदी अपने उपभोग के लिए पानी ही रक्खा करतो है। ऐसे ही साधू दूसरों के लिए ही शरीर धारण करते हैं।"* साधू को स्वयं किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि वह अपने भीतर एवं चारों ओर सर्वत्र भी उसके अस्तित्व का अनुभव करता है जो सबका दाता है । उसे इसी कारण किसी भी आर्थिक लाभ की अभिलाषा नहीं। "द्रव्य की लालसा में इधर-उधर भटकने वाला कभी साधू नहीं कहला सकता।"+ साधू कभी उस यश के लिए भी नहीं मरता जो मिल्टन के अनुसार उदार चेताओं तक की दुर्बलता का कारण बन जाता है। वह इस बात के लिए बहुत सचेष्ट नहीं होता कि उसके x साधु बड़े परमारथी, घन ज्यों बरसे आय । तपन बुझावै और की, अपनो पारस लाय ।। ३२६ ॥ वही, पृ० ३३॥ ॐ बक्ष कबहुँ नहिं फल भई नदी न संचै नीर । परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर ॥ ३२७ ।। -वही, पृ० ३३ । + साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं । धन का भूखा जो फिरे, सो तो साधू नाहिं ।। वही, पृ० ३४।