चतुर्थ अध्याय २०५ इर्द गिद अनेक शिष्यों का जमघट एकत्रित हो जाय और इस प्रकार उसके बड़प्पन व प्रभाव में वृद्धि किया करें। उच्च से उच्च ज्ञान एवं श्रेष्ठ आध्यात्मिक शक्तियों से सम्पन्न होता हुआ भी वह जान-बूझकर इस प्रकार रहता है जैसे कोई अज्ञानो व शक्तिहीन व्यक्ति हो । उसको विनय- शील बनकर जीवन व्यतीत करना ही उचित है । उसके अन्दर अभिमान व गर्व को कोई स्थान नहीं । दरिया का कहना है कि- “साधू स्वभावतः पानी के समान होते हैं, क्योंकि वे ऊपर की जगह नीचे की ओर ही बहा करते हैं ।"x साधू वाह्य रूप से हो यहाँ निवास करते हैं, और उनका शारीरिक अस्तित्व उनके वास्तविक रूप का केवल प्रतिबिंब रूप है। जिस प्रकार, पक्षी के ऊपर आकाश में उड़ते समय भी, उसकी छाया पृथ्वीतल पर दीख पड़ती है उसी प्रकार साधुओं के शारीरिक कार्यों को ही दुष्टजन यहाँ देखा करते हैं । किस प्रकार कोई जान सकता है कि संत लोग कहाँ तक पहुंचे हुए रहते हैं = स्वभावत: कुछ हो लोग इस परीक्षा में खरे सिद्ध हो सकते हैं । सभी उस ऊँचाई तक पहुँचकर अमृतपान नहीं कर पाते; बहुत लोग नीचे गिरकर नष्ट हो जाते हैं । इसी कारण कबीर ने बतलाया है कि "सिंह झंड में नहीं रहा करते और न हंस ही पंक्तियों में उड़ा करते हैं । रत्न बोरियों में नहीं मिला करता और न साधू ही जमातों x साधू जल का एक अंग, बरतै सहज सुभाव । ऊँची दिसा न संचरै, निवन जहाँ ढलकाव ।। सं० बा० सं० १, पृ० १२६ । = ज्यं खग छाँह धरा पर दीसत, सुंदर पंछि उडै असमान । त्यू सठ देहिन के कृत देखत, संतनि की गति क्यूं कोउ जाने ॥९॥ 'सुंदरविलास' अग २६ ।
पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२८५
दिखावट