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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२८६

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२०६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय में दीख पड़ते हैं।" : ऐसे ही साधुजनों की संगति में आने पर सुरति- रूपिणी स्वर्गीय स्मरणशक्ति जाग्रत हुआ करती है और उसके तीव्रता प्राप्त कर लेने पर आत्मा को अंतर्मुखी वृत्ति की उपलब्धि होती है तथा प्रपंचों के संकुचित होने पर अात्मा फिर से उन्मुक्त हो जाता है। इस प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र को बड़ी से बड़ी साध्य बातों का द्वार साधकों के लिए खुल जाया करता है। परन्तु इन (पुनर्जन्म धारी) साधुओं की संगति में आने का अर्थ उन लोगों के संसर्ग से अपने को बचाना भी हो सकता है जो इनसे विपरीत स्वभाव के व्यक्ति हैं अथवा जो असाधु व पतित कहे जाते हैं। क्योंकि यदि ऐसा न किया जाय तो जिन प्रवृत्तियों को आध्यात्मिक सम्पर्क दबाना चाहता है वे समय पाकर उभड़ जाया करेंगी और, संभव है, कि जो कुछ लाभ प्रथम दशा में प्राप्त हुआ रहेगा वह नष्ट हो जाया करेगा। इसलिए तुलसी साहब ने कहा है कि “जो कोई संतों के समक्ष आता है और दूसरी ओर नहीं जाता उसी का संबंध स्वामी के साथ सुरत को डोरी-द्वारा जोड़ा जा सकता है और वही वास्तव में, जहाँ से आया था वहाँ फिर पहुँच पाता है। किंतु सुरति को केवल जाग्रत कर उसे तोण मात्र बना देने से ही काम नहीं चल जाता इसे साथ ही स्थायी एवं शिक्षित बनाने की भी आवश्यकता पड़ती हैं। साधक चाहे जितने भी साधुओं का सत्संग करे उसे अपनी

सिंहों के लेहड़े नहीं, हंसों की नहिं पाँति ।

लालों की नहिं बोरियाँ, साधु न चल जमाति ।। सं० बा० सं० १, पृ० २८ । जो सनमुख रहै संत के, अंत कहूँ नहिं जाइ । सूरत डोरी जो . लगे, जहँ को तहाँ समाइ । सं० बा० सं० १, पृ० २३० ।