पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

205 हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय गुरु या पथ-प्रदर्शक में इस बात को योग्यता होनी चाहिए कि वह मार्ग में आगे आने वाली कठिनाइयों से परिचित करा दे ताकि वह उनका सामना करने के लिए पहले से ही तत्पर हो जाये) किंतु, यदि पथप्रदर्शक बनावटी मात्र होगा और उसे मार्ग का कुछ भी ज्ञान न होगा तो केवल 'अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः' ! की ही कहावत चरितार्थ होगी और उसका परिणाम दोनों के पतन के अतिरिक्त दूसरा क्या हो सकता है-अगुआ और अनुयायी दोनों ही कुएँ में गिर पड़ेंगे। गुरु को इसी कारण, जो कार्य करना है उसके लिए पर्यात रूप से योग्य होना चाहिए ? उसे साधुओं के सभी गुणों से संपन्न होना चाहिए और इसके साथ ही उसे ऐसा भी होना चाहिए जो नौसिखिये के हृदय में श्रद्धा व विश्वास जाग्रत कर सके ताकि उसके बतजाये हुर मार्ग पर वह बिना किसी संदेह या अविश्वास के अग्रसर होने लगे । आध्यात्मिक अभ्यास के पथ पर चलने वाले के लिए हिचकिचाहट और संशय ये दोनों सबसे बड़ी बाधाएँ मार्ग में आती हैं। इनका निराकरण तभी संभव हो सकता है जब कोई सच्ची आध्यात्मिक प्रगति वाला पुरुष उसका पथ- प्रदर्शक मिल जाय । जो मनुष्य केवल इसीलिए गुरु बनना चाहता है कि वह गुरु कहला सके अथवा इसलिए कि ऐसा होने से उसकी प्रतिष्ठा और प्रभाव में वृद्धि होगी अथवा जो भीतर ही भीतर अपने अनेक चेलों को देखकर गर्व का अनुभव करता है वह गुरु के रूप में स्वीकृत करने योग्य नहीं ? क्योंकि एक तो उसे सच्चा अनुभव ही नहीं और दूसरे वह उन वासनात्रों द्वारा प्रभावित भी रहा करता है, जो मनुष्य के निम्नतर संस्कारों में सम्मिलित की जाती हैं, और जो उसकी उच्चतर स्थिति अथवा सुरति के नितांत

  • संस खाया सकल जग, संसा किनहुं न खद्ध ।

ज बंत्र गुरु अष्षिरां, तिनि संसा चुणि चुरिण खद्ध ॥ २२ ॥ क० ग्रं०, पृ० ३।