चतुर्थ अध्याय २०६ विरुद्ध पड़ती है। यदि ये नीचेवाले संस्कार आध्यात्मिक स्तर तक ले जाये जाये तो इनके कारण वहाँ एक भयंकर परिणाम उपस्थित हो सकता है और अज्ञान एवं वंचना के भाव घटने की जगह बढ़ने लग सकते हैं। इससे स्पष्ट है कि गुरु को चुनते समय कितना सावधान रहने की आवश्यकता पड़ती है। और इसी प्रकार गुरु को भी किसी को शिष्य रूप में स्वीकार करते समय सावधानता रखनी पड़ती है। गुरु को भी इस बात का निश्चय हो जाना चाहिए कि जिस व्यक्ति के समक्ष वह अपना रहस्य प्रकट करने जा रहा है वह उसके योग्य है या नहीं। उसे उसके उस अभिप्राय से पूर्ण परिचित हो लेना चाहिए जिससे प्रेरित होकर वह उसकी शरण में श्रा उपस्थित हुआ है। क्या यह गृहस्थी के झंझटों से बचने और साधुओं का पारामतलब जीवन व्यतीत करने का केवल एक बहाना मात्र तो नहीं है अथवा वह वास्तव में, सच्ची आध्यात्मिक जिज्ञासा द्वारा प्रेरित होकर आया है। यदि पहली बात हो तो गुरु का उसे शिक्षा प्रदान करना सूअर के सामने मोती बिखेरने के समान होगा। क्योंकि उन उपदेशों के महत्व को वह समझ नहीं सकेगा, बल्कि उनका दुरुपयोग भी कर सकता है । अतएव, गुरु को न तो चाहिए कि किसी को शिष्य बनाने में शीघ्रता करे और न शिष्य को ही चाहिए कि किसी को शीघ्र गुरुवत् मान लेवे। परन्तु जब नौसिखिया एवं गुरु को यह निश्चय हो जाय कि एक दूसरे का शिष्य और दूसरा गुरु होने योग्य है तो दोनों के बीच पूर्ण निश्छलता एवं स्पष्टता के भाव प्रा जाने चाहिए। शिष्य को चाहिए कि वह अपने गुरु के प्रति पूरी श्रद्धा रखे तथा उसके ऊपर पूर्णरूप से विश्वास करे। उसे अपने गुरु के सामने अपना हृदय खोलकर अपनी त्रुटियों और की गई उन्नतियों की सच्ची-सच्ची सूचना देनी चाहिए, और इसके साथ ही गुरु को भी चाहिए कि उसके लिए प्रेम एवं सद्भाव प्रदर्शित करे तथा
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