परन्तु नामानुसार किया गया उक्त काल-विभाजन भी आगे चल- कर उतना उपयुक्त नहीं समझा गया । कवियों एवं लेखकों की विभिन्न रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन करते समय अब उनके रचना-काल की परिस्थितियों पर भी कुछ अधिक विचार किया जाने लगा और तात्कालिक समाज के भीतर उनकी भावधारा तथा रचनाशैली की विशेषताओं के कारणों की भी खोज की जाने लगी। तदनुसार एक समान रचनाओं के किसी कालविशेष में ही उपलब्ध होने के कारण क्रमशः उनके रचनाकाल की प्रमुख विचारधाराओं का भी पता लगाना आवश्यक हो गया और इस प्रकार उक्त काल-विभाजन के आधार में भी आमूल परिवर्तन कर दिया गया। स्व० प्राचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल ने सर्वप्रथम अपने 'हिंदी साहित्य का इतिहास' की रचना बहुत कुछ इसी दृष्टिकोण के अनुसार सं० १९८६ में की थी और तब से वैसे अन्य इतिहासकार भी अधिकतर इसो नियम का पालन करते आये हैं । वे, प्रमुख प्रवृत्तियों का विश्लेषण कर उनकी विभिन्न धाराओं के अंतर्गत भिन्न-भिन्न कवियों का वर्गीकरण करते रहे हैं और उनका वर्णन करते समय उनकी कृतियों की समीक्षा पर भी विशेष ध्यान देते आये हैं। ‘फलत: हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल के अंतर्गत 'निर्गुणधारा' एवं 'सगुणधारा' नाम की दो भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों की कल्पना की गई है और 'निर्गुणधारा' को भी 'ज्ञानाश्रयी' तथा 'प्रेमाश्रयी' नामक दो शाखाओं में विभाजित कर, कबीर, नानक आदि कवियों का परिचय 'ज्ञानाश्रयी शाखा के अंतर्गत किया जाने लगा है। कबीर, नानक, रैदास, दादू जैसे संतों के नामों से लोग बहुत दिनों से परिचित थे और उनकी विविध बानियों का प्रचार भी अनेक वर्षों से बढ़ता ही चला जा रहा था। स्वयं उन संतों ने अपने पूर्ववर्ती संतों के नाम बड़ी श्रद्धा के साथ लिये थे और बहुधा उन्हें सफल साधकों व भक्तों की श्रेणी में गिनते हुए उनका स्मरण किया
पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२९
दिखावट