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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३०

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था। इसी प्रकार भक्तमालों के रचयिताओं ने भी अपने पूर्वकालीन संतों के चमत्कारपूर्ण जीवन की झांकियाँ दिखलाई थीं और कभी- कभी उनकी विशेषताओं की ओर लक्ष्य करते हुए उनके महत्व का मूल्यांकन करने की भी चेष्टा की थी। परन्तु, इस प्रकार के वर्णन अधिकतर पौराणिक पद्धति का ही अनुसरण करते आये और इसी कारण इनमें उनके सर्वांगपूर्ण परिचय के उदाहरण नहीं पाये जाते । इसी प्रकार हम उन आलोचनात्मक परिचयों को भी एकांगी ही कह सकते हैं योरप तथा भारत के तिपय विद्वानों द्वारा विविध धर्मों के इतिहासों में दिये गये मिलते हैं और जिनमें इन संतों की सांप्रदायिक प्रवृत्ति और इनकी सुधार-पद्धति की ओर ही विशेष ध्यान दिया गया है। संतों की कृतियों का अध्ययन उनमें केवल धार्मिक दृष्टिकोण से ही करने का प्रयत्न किया गया है और इनके नामों के आधार पर निकले हुए पंथों का इतिहास भी बतलाया गया है । इस कारण ऐसी पुस्तकों में विशेषकर प्रचलित भेषों और उपासना-पद्धतियों का विस्तृत वर्णन ही पाया जाता है। उपर्युक्त साहित्यिक अथवा सांप्रदायिक परिचयों में इन संतों का वर्णन सामूहिक रूप में किया गया नहीं दीख पड़ता । पहले प्रकार के ग्रंथों में इन्हें अन्य कवियों की ही भाँति पृथक्-पृथक् परिचित करा कर इनकी रचनाओं के कुछ विवरण दे दिये गये हैं और इसी प्रकार, उक्त धार्मिक इतिहासों में भी इन्हें निरा . धार्मिक प्रचारक मानकर इनका वर्णन अलग-अलग कर दिया गया है। संतों को एक वर्ग-विशेष में गिनते हुए उनके सिद्धांतों तथा साधनाओं का सामूहिक परिचय देने अथवा उनकी कथनशैली व प्रचार-पद्धति पर भी पूर्ण प्रकाश डालने का काम उक्त दोनों में से किसी प्रकार की भी पुस्तकों में किया गया नहीं दीख पड़ता । वास्तव में इन संतों के विषय में सर्व साधारण की धारणा पहले यही रहती आई थी कि ये लोग केवल साधारण श्रेणी