पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२९०

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२१० हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय ऐसा कोई भी उपाय उसे बतलाने में न चूके जो उसके शिष्य के लिए किसी परिस्थिति में उपयोगी सिद्ध हो सकता हो । न केवल शिष्य को गुरु में पूरी श्रद्धा होनी चाहिए और उसके प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित करनी चाहिए, बल्कि उसका यह भी कर्तव्य है कि अपने गुरु के चरणों में वह अपना सर्वस्व अर्पित कर देवे और तन-मन- धन से उसकी सेवा में लग जाय ।। शिवदयाल ने अपने सार बचन ॐ में इन सेवाओं का एक विस्तृत विवरण दिया है, जिसे बड़ा होने पर भी पूर्णतः उद्धृत करना अनुचित न होगा। शिवदयाल का कहना है कि "शिष्य को चाहिए कि गुरु के चरणों को दबावे, उसे पंखा करे, उसका आटा पीसे, पानी भरे, नाबदान साफ करे, चौके के लिए मिट्टी लावे, उसे दातून करावे, हाथ धुलावे, पेशाब के पात्र को धोवे, नहलावे, शरीर पोछे, धोती पहनावे, धोती-अंगौछा साफ करे, बाल झाड़ दे, कपड़े पिन्हा दे, ललाट पर टीका कर दे, रसोई बनाकर परस दे, पानी पिला दे, हुक्का भर दे, सेज लगा दे, पीकदान लेकर उससे पीक करावे, उसका किया हुआ पीक स्वयं पी जाय, संक्षेप में उसे चाहिए कि अपने गुरु की सेवा सभी प्रकार से करे। अपने गुरु के लिए नीच से नीच काम भी बिना विलंब करे उसकी श्राज्ञाओं का पालन करे।" यह शारीरिक सेवा है जिसमें निम्न श्रेणी का परिश्रम हुश्रा करता है। धून की सेवा वह सेवा है, जो गुरु के लिए द्रव्य व्यय करके की जाय और उसकी आवश्यकता इस प्रकार बतलायी गई है-“गुरु को धन की भूख नहीं रहा करती क्योंकि उसे भक्ति का धन प्राप्त रहा करता है किंतु वह तुम्हारी भलाई चाहता है और द्रव्य को, भूखे को अन्न तथा प्यासे को पानी देने में व्यय करना चाहता है । यदि तुम उसे प्रसन्न कर देते N ॐ भा० १, पृ० २३५-७ ।