1 २१४ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय अनुभव न होने पर भी, जो लोग दूसरों को बुला-बुला कर शिष्य बनाया करते हैं वे गुरु मेहतर और शिष्य चमार के समान होते हैं ।" इस पर कहा जा सकता है कि जब इस विषय में हानि की इतनी संभावना है तो फिर गुरु का एकदम त्याग ही क्यों न करा दिया जाय ? क्योंकि कबीर जैसे बड़े संतों ने अपनी साखियों और शब्दों के अंतर्गत उच्च से उच्च सिद्धांतों को भर दिया है और वे रचनाएँ हमें उपलब्ध भी हैं। हमलोग क्यों न उन्हीं को अपने पथ प्रदर्शक बना लें। हम लोग इस प्रकार वह सभी ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे जो हमें गुरुत्रों द्वारा उपलब्ध होता है और कतिपय गुरुत्रों की धूर्तता के कारण उत्पन्न होनेवाली हानि से भी बच सकेंगे। इसी प्रकार की धारणा ने कदाचित्, सिक्खों के गुरु-गोविन्दसिंह को उनकी गुरु-परंपरा समाप्त कर देने के लिए प्रेरित किया था जिस कारण उन्होंने गुरुओं के स्थान पर 'ग्रंथ' को आसन प्रदान किया। इसके सिवाय जान पड़ता है कि गुरु-गोविंदसिंह ने यह भी सोचा था कि शिष्यों की संख्या बराबर बढ़ती जाने की स्थिति में किसी गुरु के लिए यह संभव नहीं कि वह प्रत्येक को अपने व्यक्तिगत संसर्ग द्वारा लाभान्वित करे---और वास्तव में यही कारण है जिससे समय पाकर सभी संप्रदायों की वह मौलिक आध्यात्मिकता जाती रहती है जो उनकी प्रमुख विशेषता रह चुकी थी। अतएव हो सकता है कि सिख धर्म ने इस परिवर्तन के कारण अपना धर्मत्व नहीं खोया। परन्तु जब प्रश्न आध्यात्मिक अभ्यास का है तो फिर पुस्तकों के अध्ययन मात्र पर कभी विश्वास नहीं किया जा सकता। सिख धर्म में भी गुरु उन ज्ञानियों के रूपों में लौट आया है जो गुरु- बानी के रहस्यों को सर्व साधारण पर प्रकट करने योग्य, वैसी शक्ति रखने ॐ ज्ञान ध्यान जाने नहीं, करते सिष्य बुलाय पल्टू सिष्य चमार सम, गुरुवा मेस्तर प्राय ॥ वही, पृ० २२४॥
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