पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चतुर्थ अध्याय २१५ वाले समझे जाते हैं। प्रभावशालिनी आध्यात्मिक शक्ति का सदा निकट वर्तमान रहना, कोरे उपदेशों से कहीं अधिक लाभदायक हुआ करता है। केवल उपदेश मात्र नहीं बल्कि गुरु के मुख से निकलनेवाली शिक्षा ही ऐसी होती है जिससे शिष्य की हृदयगत मूल प्रेरणा को या तो हानि पहुँच जाय, सहायता मिल जाय अथवा उसकी प्रतिकूल शक्ति के सँभालने में किसी प्रकार का संकेत मिल जाय । किसी माध्यम द्वारा उपलब्ध उपदेश अभीष्ट फल प्राप्त कराने में कभी समर्थ नहीं हो सकता । दादूने इस बात का विरोध करते हुए कहा भी है कि “केवल कागज व स्याही के भरोसे पर ही कोई इस संसार से मुक्त किस प्रकार हो सकता है ?"+ तुलसी साहब का भी कहना है "साखी व शब्द जब तक कागज पर लिखे हुए हैं तब तक उसका कुछ भी प्रभाव नहीं। बिना साधुओं के साथ सत्संग किये वे समझ में नहीं पा सकते । चाहे तुम उसके रहस्यों से परिचित होने के लिए अामरण प्रयत्न करते रह जायो।" अतएव साधुओं में से अपने गुरु को खोज निकालना इस मार्ग पर अग्रसर होनेवाले का प्रथम कर्तव्य है और यही सबसे कठिन और महत्वपूर्ण भी है। इसके द्वारा आध्यात्मिक जगत् में आगे प्रवेश पाने की कुंजी हाथ लग जाती है। यदि किसी को सच्चा गुरु मिल जाय तो आगे की सफलता निश्चित हो जाती है और यही कारण है जिससे निर्गुण संप्रदाय में उसे इतना महत्व दिया जाता है । गुरु को परमेश्वर स्वरूप कहा जाता है । “कबीर ने कहा है कि गुरु एवं गोविंद में कोई + मसि कागद के पासरे, क्यों छटे संसार । वानी पृ० १०१ । x गुप्त मता संतन ने भाखी, कागद में मिलिहै नहिं साखी। साखी सब्द ग्रंथ जो गावे, बिन सत्संग समझ नहिं आवे ।। ये झूठ कागद के माही, ढूंढ ढूंढ सब जनम सिराई ।। 'घट रामायन' पृ० २४६ ।