1 २२२ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय वास्तव में इसे प्रारम्भिक दशा में बाह्य साधना के रूप में रहना ही पड़ेगा परन्तु वहाँ भी हृदय का सच्चा होना परमावश्यक है । जीभ मुंह के भीतर अवश्य घूमा करेगी, किंतु मन चारों ओर भ्रमण नहीं कर सकता । क्रमशः जीभ एवं कण्ठ जैसी शब्दोच्चारण की इन्द्रियों का व्यवहार छ टने लगता है। मुख्य उद्देश्य हृदय को बाह्य जीवन के प्रपंचों से विरत कर श्राभ्यन्तरिक जीवन के अत्यन्त मार्मिक प्रदेश की और उसके द्वार खोल देना है । जैसा कबीर ने कहा है-"सुरति के द्वारा स्मरण करते चलो मुंह खोलने की आवश्यकता नहीं, बाहरवाली खिड़कियों को बन्द कर अन्दर के पट को खोलो।" स्मरण के संबंध में साधक के लिए आदर्श उदाहरण पनिहारी का दिया जा सकता है यद्यपि वह मार्ग पर चलती हुई बातचीत भी करती जाती है, किंतु उसका मन सदा अपने सिर पर रखे हुए भरे घड़े की ओर ही लगा रहता है। इसी प्रकार साधक को भी चाहिए कि अपने को उस पनिहारिन की स्थिति में रखे और बाह्यरूप से संसार में व्यवहार करता हुआ भी अपनी सुरति को सदा ईश्वर में ही लगाये रहे । उसका सारा जीवन ही उसी ईश्वरीय केन्द्र की अनवरत स्मृति में निरत रहना चाहिए । बिना उस स्मृति के एक श्वास-प्रश्वास का भी समय न व्यतीत होना चाहिए। जब साधक उस स्थिति तक क्रमशः पहुँच जाता है जो प्रार्थनात्मक मनोवृत्ति की चरम सीमा है, तो उसका होठों वाला जाप छूट जाता है और उसके जीवन के 'जाप' का प्रारम्भ होता है, जिसे हमारे संतों ने 'अजपाजाप' अर्थात् जीभ या माला की श्राभ्यन्तरिक साधना बिना होने
- सुमिरन सुरति लगाइ के, मुख ते कछ न बोल ।
बाहर के पट देइ के, भतीर के पट खोल ॥ वही, पृ० ६६ ।