पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३०१

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- चतुर्थ अध्याय २२१ राम का नाम जपता हुआ भी मनुष्य काल से अपने को बचा नहीं सकता। ऐसा उन्होंने अन्यत्र भी कहा है निर्गणपंथियों के लिए नाम-स्मरण एक ऐसी प्रेम-साधना है जो कभी निष्फल नहीं जाती) जैसा कि अंडरहिल ने भी कहा है- "रहस्य- वादी निरपेक्ष के साथ किसी गौण रूप से प्रेम नहीं करता और न वह वैसी भावुकतामात्र के ही प्रभाव द्वारा करता है, बल्कि उसका प्रेम उस गंभीर एवं मार्मिक ढंग से उत्पन्न होता है जो किसी भी परिस्थिति में विकसित होता जाता है और प्रत्येक साधन द्वारा जोखिम उठाते हुए भी अपने प्रियतम से मिलना चाहता है। (मिस्टीसिज़्म, पृ० ८५) संसार में भी हम देखते हैं कि सच्चे प्रेमी के लिए अपने प्रियतम का नाम हो एक मात्र आधार हुआ करता है, चाहे वह परिस्थिति के कारण उससे कितना भी अलग क्यों न रहता हो । निर्गणी लोगों ने भी सुमिरन को) उसी भाव के साथ अपनाया है। यह वास्तव में एक प्राभ्यंतरिक दशा है। जिसमें हृदय अपने श्राराध्य की ओर अभिमुख रहता है। अतएव कबीर ने, ऐसे जप को जिसमें माला हाथ में फिरा करती है, जीभ मुह में घूमती है। और मन चारों ओर भ्रमण करता रहता है स्वीकार नहीं किया है। क्योंकिर सुमिरन का उद्देश्य भगवान् की सुरति के साथ अपने को मिला देना है। भोजन कह्याँ भूख जे भाजै, तौ सब कोइ तिरि जाई । नर कै साथि सुपा हरि बोल, हरि परताप न जाने । जो कहूँ उड़ि जाय जंगल मै, बहुरि न सुरतै आनै ।। ४ ।। क० ग्रं॰, पृ० १०१ ।

रामहि राम कहंतड़ा काल घसीटा जाइ ॥ १८ ॥

वही, पृ० ३७ । = माला. तो कर मैं फिर, जीभ फिरै मुख माहि । मनुवाँ तो दुहुँ दिसि फिरै, सो तो सुमिरन नाहिं ॥ सं० बा० सं०, पृ०६।