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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३०४

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२२४ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय भीतरी ईश्वरीय भावना में मग्न कर देती है और अब साधक उसे अपनी वस्तु समझ लेता है जो वास्तव में सदा उसके साथ रही थी। इसी को (निर्गुणी लोग 'लौ' कहते हैं जो लय शब्द का विकृत रूप हे । इस प्रक्रिया में उस स्वत: निर्देश (बाटो-सजेशन) का भी सिद्धान्त निहित है जिसको आधुनिक स्पिरिटवादी ( जिन्हें हम अध्यात्मवादी कहने में संकोच करते हैं ) बड़ी दृढ़ता के साथ प्रतिपादित करते हैं और जो लययोग का भी प्राधार स्वरूप है, किन्तु जिसकी व्याख्या बहुधा इसके प्रधान ग्रन्थों में नहीं पायी जाती। परन्तु अध्यात्मवाद की पुस्तक 'स्वतः निर्देश' (आटो-सजेशन ) के महत्व को स्वीकार करती हैं। एक प्रसिद्ध शास्त्रीय कहावत है कि 'जाकी जैसी भावना, ताकी तैसी सिद्धि ।'x इससे भी अधिक स्पष्टरूप में योग-वाशिष्ठ के अंतर्गत कहा गया -“हे महाबाहो ! अन्य बातों को भूलकर जिस प्रकार कोई अपने विषय में अनुभव करता है, वैसा ही वह हो भी जाता है ।" नाम-सुमिरत. भी उसी प्रकार प्रभावित करता है। आराध्य को स्मरण करते-करते आराधक उसके द्वारा इतना भरपूर हो जाता है कि वह उसकी जगह ले लेता है। कबीर कहते हैं कि "तुझे स्मरण करता-करता मैं तू बन गया; अब मुझमें मैं नहीं रह गया। अब मैं तुझ पर न्योछावर होता मैं जिधर देखता हूँ तू हो तू दीख पड़ता है ।"+ x यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ।

  • भावित तीव्र संवेगादात्मनायत्तदेव स ।

भवत्याशु महाबाहो विगतेतर संस्मृतिः ।। योग वाशिष्ठ। तू तू करता तू भया, मुझमें रही न हूँ। बारी फेरी बलि गई, जित देखू तित तू ॥ ६ ॥ क. ग्रं॰, पृ० ५।