चतुर्थ अध्याय २२५ इस मग्न हो जाने की क्रिया-द्वारा अन्तिम मोक्ष की उपलब्धि हो जाती है, जिस दशा में व्यष्टि अपने को समष्टि के अन्तर्गत फिर से प्राप्त कर लेता है और इस प्रकार अपने स्वामी को पाते ही उसके अभीष्ट की सिद्धि हो जाती है जिसके लिए वह आज तक सचेष्ट रहा है। कबीर का कहना है-'मेरा मन जब राम का स्मरण करता है तब वह राममय हो जाता है इस प्रकार जब मन राम ही हो गया तो फिर मैं किसके सामने अपना शिर झुकाऊं?"W स्मरण रहे कि अभीष्ट की यह सिद्धि निर्गुणियों के प्रत्येक सम्प्रदाय के अनुसार भिन्न-भिन्न स्वरूप धारण करती है जैसा कि हम उनके दार्शनिक सिद्धान्तों की चर्चा करते समय पिछले अध्याय में देख आये हैं । इस प्रकार सुमिरन तीन प्रकार का होता है, (१) 'जाप' जो कि बाह्य क्रिया होती है, (२) 'अजपा जाप' जिसके अनुसार साधक बाहरी जीवन का परित्याग कर आभ्यंतरिक जीवन में प्रवेश करता है और (३) 'अनाहत' जिसके द्वारा साधक अपनी आत्मा के गूढ़तम अंश में प्रवेश करता है जहाँ पर अपने आप की पहचान के सहारे वह सभी स्थितियों को पार कर अंत में कारणातीत हो जाता है। इन क्रमों की ओर कबीर ने इस प्रकार संकेत किया है-'जाप मर जाता है अजपा- जाप भी नष्ट हो जाता है और अनाहत भी नहीं रह जाता, जब सुरति शब्द में लीन हो जाती है तब उसका जन्म व मरण के चक्कर का भय - छूट जाता है। -1 • मेरा मन सुमिरे राम को, मेरा मन रामहि पाहि । जब मन रामै है रहा, सीस नवावों काहि ॥ ८ ॥ क० ग्रं०, पृ० ५। X जाप मरे अजपा मरे, अनहद हू मरि जाइ । सुरत समानी शब्द में, ताहि काल नहिं खाइ ।। ३ ।। सं० वा० सं०, पृ० ८७ । y
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