चतुर्थ अध्याय २२७ 'पैड भी तेरे ही हैं । सब कुछ तेरा है किंतु तू मेरा है और यही मेरा ज्ञान है। 'यदि सच पूछिये तो उसे कुछ माँगने की आवश्यकता ही नहीं रहती क्योंकि यदि नाम-स्मरण को भौतिक दुःख वा सुख के क्षेत्र में किसी प्रकार की शक्ति उपलब्ध है तो उस मनुष्य के लिए जो अभी तक स्वास्थ्य व आनन्द से युक्त है ईश्वर का नाम और भी लाभदायक सिद्ध हो सकता है। दुख उस दशा में हमारे ऊपर कोई प्रभाव ही नहीं डाल सकता । कबीर कहते हैं कि "प्रत्यक मनुष्य भगवान् को दुख में स्मरण करता है सुख में कोई भी सुमिरण नहीं करता। यदि सुख में भी वह स्मरण करने लगे तो फिर दुख का अवसर ही उसे क्यों उपलब्ध हो' ?x जब निर्गुणर को यह आदेश मिल गया कि 'चाहे हम बैठे हों, चलते हों, खरते हों, 'पीते हों अथवर और भी कोई काम करते हों, प्रत्यक दशा में हमें चाहिए कि भगवान् को अपने हृदय में विद्यमान समझते हुए उसे स्मरण किया करें, + तो फिर उसे किसी दुख वा कमी के अनुभव करने की अवश्यकतर ही कहाँ रह जाती है। परन्तु ईश्वर को सदा स्मरण करते रहने का यह उद्देश्य निगुणियों के अनुसार कभी नहीं है। ० तन भी तेरा मन भी तेरा तेर पिड पराण । सब कुछ तेरा तू है मेरा, यह दादू का ज्ञान ।। सं० बां० सं० पृ० ६१ ॥ x दुख में सुमिरण सब करे , सुख में करे न कोय । जो सुख में सुमिरण करे , दुख काहे को होय ।। + बैंठे लेटे चालते, पान व्यवहार। जहाँ तहाँ सुमिरण करै, सहजो हिये निहार ॥ सं० बो० सं० १५३ ॥ खान
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