हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय दैनिक जीवन में किसी को कभी प्रार्थना का आवश्यकता नहीं पड़ती जबतक उसे किसी कमी का अनुभव न हो अथवा उसपर कोई आपत्ति न श्रा पड़े। मनुष्य ईश्वर का नाम तभी स्मरण करता है जब उसे जान पड़ता है कि बिना उसकी सहायता के उसे अपने ऊपर आये हुए दुख से छुट- कारा नहीं मिल सकता। कर्मकांड-प्रेमी धर्मों ने अपने नियमानुसार इस प्रकार को मनोवृत्ति को दृढ़ता प्रदान कर दी है और वे अपने अनुया- यियों को ईश्वर का नाम-स्मरण इसलिए कराते हैं कि उसके द्वारा उन्हें धन- सपत्ति मिलेगी और शारीरिक सुख भी प्राप्त होगा। इसमें संदेह नहीं कि प्रार्थना ने मनुष्य को वे लाभ पहुँचाये हैं जिन्हें वे स्वप्न में भी पाने की आशा नहीं कर सकते थे। किंतु, इस प्रकार की बदलौअल वास्तविक प्रार्थना नहीं कही जा सकती, क्योंकि इसमें प्रार्थी बहुधा ईश्वर कहीं अधिक उस वस्तु से ही अनुराग रखता है जिसको उसे चाह रहा करती है और यदि वह उसे बिना ईश्वरीय सहायता के उपलब्ध हो सके तो वह उसे स्मरण करने का कभी नाम भी न लेगा। परंतु प्रार्थना की सच्ची वृत्ति में आकर कोई कभी ईश्वर से अधिक किसी अन्य वस्तु को नहीं समझ सकता। (सुमिरन एक प्रकार को प्रम साधना है, वह कभी अपने प्रियतम से किसी वस्तु की भीख मांगने के उद्देश्य से नहीं की जा सकती, क्योंकि मो को तो अपने प्रियतम का नाम ही प्यारा हुआ करता है। यदि कुछ माँगना ही हो तो वह स्वयं अपने प्रियतम को ही माँगेगा । कबीर का कहना था कि हे स्वामी मैं तेरे सिवाय और कोई भी वस्तु नहीं चाहता। नानक भी कहते हैं “हे कर्ता तू मेरा यजमान है और मैं तुझसे अपनी दक्षिणा माँगता हूँ. तू मुझे अपना नाम दे दे।" दादू का भी अनुरोध हैं हे स्वामी, यह शरीर तेरा है, यह आत्मा भी तेरो है और ये सारे प्राण व
- करता तू मेरा जजमान । एक दक्षिना माँगौं, देहु अपणा नाम ।
'ग्रंथसाहब' पृ० ७१६ । ।