चतुर्थ अध्याय २२६ जिस प्रकार श्रादि व अन्त का भान शब्द के द्वारा हुआ करता है और इस काल की ही सीमा की भाँति, जिस प्रकार दिशा एवं कार्य-कारण के अनुभवों की भी उत्पत्ति, उसी शब्द से ही मानी ६. शब्द योग जाती है, उसी प्रकार इन सभी सीमानों को अति- क्रमण करने के लिए फिर से उसी शब्द में उनका लीन हो जाना भी आवश्यक होगा। शिवदयाल ने कहा भी है कि "शब्द को ही सबका श्रादि व अंत भी समझना चाहिए" वह योग जिसके द्वारा सुरति एवं शब्द का संयोग सिद्ध होता है और उक्त सीमाएँ शब्द में फिर से लीन हो जाती हैं ; शब्दयोग अथवा सुरति शब्दयोग कह- लाता है और वह शब्द सर्वप्रथम भगवन्नाम के रूप में मुंह से निकलता है और अंत में स्वयं शब्द रूप ब्रह्म हो जाता है। इसे सहजयोग भी कहा जाता है क्योंकि इसको सहायता से भी प्रत्यभिज्ञान का उदय .. होता है। इस अवस्था में निर्गणियों का लक्ष्य शुद्ध सत्तारूप हो जाना है जो वह मूलत: पहले से भी है, किंतु जिसका यह अनुभव नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी अनुभूति एवं सत्ता के बीच प्रकृति का व्यवधान श्रा जाता है। यह तभी संभव है जब उस प्रकृति का अतिक्रमण कर दिया जाय जो सत्ता को प्रावृत किये रहती है और इसके लिए हमें उस प्रकृति को ही भली भाँति समझ लेना पड़ेगा और उसके रहस्यों को भी जान लेना होगा जैसा कि लययोगसंहिता तंत्र में कहा गया है "ब्रह्म (पुरुष) से उत्पन्न होने के कारण प्रकृति . अर्थात् पिंड व ब्रह्माण्ड एक ही समान हैं। वे समष्टि एवं व्यष्टि के संबंध रूपी बन्धनों द्वारा बंधे हैं। ऋषि, देव एवं पितृ लोग पिंड में रहा
- सबका आदि शब्द को जान । अन्त सभी का शब्द पिछान ।
'सारवचन' पृष्ठ १६१।