पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३१०

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२३० हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय करते हैं और ग्रह नक्षत्र एवं राशियाँ ब्रह्माण्ड में रहा करती हैं। अतएव पिंड के ज्ञान-द्वारा ब्रह्माण्ड का ज्ञान भी संभव है। और पिंड का ठोक ठीक ज्ञान गुरु से प्राप्त करने के लिए प्रकृति को पुरुष में लीन कर देना आवश्यक होगा ? इस प्रकार वास्तविक योग की उपलब्धि के लिए प्रत्येक साधना में इस प्रश्न पर दोनों ओर से विचार करना पड़ेगा । उस सत्ता के साथ तद्प हो जाने के लिए पूर्ण अभिलाषा होनी चाहिए और इस बात के लिए भी भूख होनी चाहिए कि किस प्रकार प्रकृति के ज्ञान-द्वारा उसका अतिक्रमण कर देवे। आधुनिक पारि भाषिक शब्दावली के अनुसार-पहले को रहस्यवाद ओर दूसरे को 'डिकल्टिज़्म' (Decul tism) कहेंगे और जैसा कि अंडर-हिल को वस्तु- स्थिति से बाध्य होकर मानना पड़ा है, दोनों एक दूसरे के विपरीत है। परंतु निगुणियों के विचार से, यह बात नही है, क्योंकि वे इनको एक दूसरे का पूरक समझते हैं । यदि कोई मत इनमें से किसी एक की उपेक्षा करता है तो. समझना चाहिए कि वह परमात्मा की श्रार निर्दिष्ट किये गये मार्ग की सभी आश्यकताओं को पूर्ति कर सकने में असमर्थ है । ईसाई रहस्य वाद, जिसने अस्तित्व वा सत्ता को संसृति को नितांत उपेक्षा कर के, उपलब्ध करने का प्रयत्न किया था, उसी प्रकार भयानक भूल का दोषी कहा जा सकता है। जिस प्रकार अाधुनिक 'डिकल्टिज़्म' (Decultism) जो कि संस्टति के रहस्य का सत्ता से पृथक व भिन्न अर्थ में प्रयोग करना अपना लक्ष्य मानता है। किंतु निगुणी संतों के शब्दयोग में, प्राध्यात्मिक साधना की पूर्ति दोनों के सहयोग से होती हुई दीख पड़ती है । नाम सुमिरन जिसकी चर्चा पिछले प्रकरणों में की जा चुकी है शब्दयोग के सभा वाले अंश को सूचित करता है । उसका संसृतिवाला अंश जिसका सम्बन्ध विश्व को सृष्टि से है, आगे के पृष्ठों में बतलाया जायेगा । १-'लययोग संहिता' पृ० १-२ ।