चतुर्थ अध्याय २३५ होते हैं, जिन्हे यदि काम में लाया जाय तो उस शरीर के सारे स्पंदनों का नियंत्रण जिन्हें अन्यत्र कोश कहा गया हैं, प्रत्येक प्रकार के स्थूल वा सूक्ष्म स्तर के क्रम से किया करते हैं। इन्हीं स्तरों को क्रमान्वित कर लेने पर, पदों की संज्ञा दी जाती है । इसमें संदेह नहीं कि क्रमों की संख्या उन प्रयोगों पर हो श्राश्रित है जो हम उक्त नियामक बटनों का कर सकते हैं। योग शास्त्रानुसार ये षट्-चक्र उस सुषुम्ना नाड़ी के भीतर भिन्न-भिन्न अवस्थान माने जाते हैं, जिसके निम्न सिरे अर्थात् मूलाधार कमल में प्रकृति वा आध्यात्मिक शक्ति अपनो साढ़े तीन कुडलियों द्वारा उससे तथा उसके वाम भाग में अवस्थित इड़ा, एवं दाहिनी ओर की पिंगला नाड़ियों से जो उसके साथ उसके ऊपर वाले छिद्र वा ब्रह्मांध्र के पास पुरुष के निवास स्थान सहस्रार में मिलती है, सर्पिणी कुडलिनी के रूप में लिपटी रहती है। 'लययोग संहिता तंत्र' में कहा गया है कि 'कुडलिनी मूला- धार में सुप्त रहती है और सहस्रार में नित्य-पुरुष का वास है । जब तक कुंडलिनी सोती रहती है वाह्य सृष्टि चलती रहती है । जब योग साधना की भिन्न-भिन्न युक्तियों द्वारा वह जागृत की जाती है तो वाह्य सृष्टि का उस पुरुष में लय हो जाता है।" सहस्रार के सहस्रदलों में वर्तमान चन्द्र अमृतस्राव करता है जो इड़ा नाड़ी द्वारा बहा करता है और चार दलों के मूलाधार में वर्तमान सूर्य उसे सोख लेता है तथा, उसकी जगह, विषमय रस प्रवाहित करता है जो शरीर में भिन जाता है और जिसके कारण उसमें समय के पहले ही ह्रास होने लगता है। योगीलोग, चन्द्र द्वारा निकलने वाले उस अमृत का पान कर उसे शरीर में व्याप्त कर देना तथा उसकी सहायता से उक्त विषैले रस के प्रभावों से मुक्त हो जाना चाहते हैं।
- पृ० २।