चतुर्थ अध्याय २३७ तो इसका प्रवाह सुषुम्ना नाड़ी से हुआ करता है, जहाँ पर चन्द्र एवं सूर्य की उक्त दोनों नाड़ियाँ आपस में मिल जाती हैं । इसे अग्नि नाड़ी भी कहते हैं। ये नाड़ियाँ क्रमशः गंगा जमुना एवं सरस्वतो भी कहलाती । अाज्ञाचक्र से होकर जाते समय ईड़ा बरुण कही जाती है। और पिङ्गला को असी का नाम दिया जाता है तथा इसी कारण उस चक्र को भी वाराणसी वा काशी कहा करते हैं। प्राणायाम से अभिप्राय धीरे धीरे भीतर को ओर दीर्घ श्वास लेना और इस क्रिया को बारी-बारी दोनों नथनों द्वारा करना, वायु को जब तक संभव हो रोक रखना तथा अंत में उसे दूसरे नथने से बाहर निकाल देना होता है ! श्वास के भीतर ले जाने को पूरक, बाहर निकालने को रेचक तथा रोक रखने को कुभक नाम दिये गये हैं रोक रखने की अवधि को क्रमशः धीरे-धीरे बढ़ाते जाना चाहिये ! विश्वास किया जाता है कि प्राणायाम का लगातार अभ्यास उस यौगिक शक्ति को जागृत करता है जिसका प्रतीक मूर्याकार कुंडलिनी है जो मूला- धार के भीतर प्रसुप्त समझो जाती है और जो ऊपर को. चढ़ती हुई, अन्य केन्द्रों को भेदन कर उनमें निहित शक्ति को उद्बुद्ध कर देती है । ज्यों- ज्यों उन केन्द्रों का भेदन होता जाता है त्यों-त्यों साधक अनुभव के उच्चतर सारों तक पहुँचता जाता है । अद्भुत दृश्य देखा करता है और अलौकिक शक्ति प्राप्त कर लेता है। कुछ लोग इसे ही परमात्मा का दर्शन मान लेते हैं, किंतु साधक को चाहिए कि वह इस प्रकार के प्रलो- भनों से अपने को बचाता चले। जब आज्ञाचक्र अथवा दोनों भ्रवों एवं नाक का मध्यवर्ती केन्द्र जो त्रिकुटी भी कहा जाता है प्राप्त हो जाता है तब कहीं सच्चे आध्यात्मिक जीवन का प्रारंभ होता और जब कुंडलिनी ब्रह्मरन्ध्र तक पहुंच जाती है तब मन पूर्णतः शांत हो जाता है तथा विषयों से विनिवृत्त होकर अंतर्मुख बन जाता है । इस स्थिति को उन्मन दशा वा अति चेतनावस्था कहते हैं। इसी दशा के प्राप्त हो जाने पर अनाहत नाद वा ईश्वरीय शब्द सुन पड़ता है जिससे अमृत रस का स्वाद 1
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