पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३१८

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२३८ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय मिलने लगता है और परमात्मा के प्रकाश का दृष्टि-गोचर होमा भी संभव बन जाता है। यह वही दशा है जिसे वेदान्ती तुरीयावस्था कहते हैं और जो बहुधा दश द्वार का खुलना भी कहलाता है। नीचे दिये गये प्रतिनिधि निर्गुण सन्त कवियों के उद्धरणों द्वारा इन योग संबंधी विश्वासों तथा अभ्यासों का स्पष्टीकरण किया जा सकता है। उलटि पवन कहँ राखिये कोई मरम बिचारे । साँधे तीर पताल को फिर गगनहिं मारे ॥५४॥ क० ग्रं०, पृ० १३८ । अर्थात् लौटने पर प्राणवायु को कहाँ पर संचित किया जाय इसके रहस्य पर कुछ ही लोगों ने विचार किया होगा । तीर को, सर्वप्रथम पाताल की ओर लक्ष करो और तब उसे श्राकाश की ओर छोड़ो । तीर यहाँ प्रसंगानुसार प्राणवायु ही हो सकता है इसमें संदेह नहीं । प्रकट प्रकास ज्ञान गुर गमि थे ब्रह्म अगिन परजारी। ससिहर सूर दूर दूरंतर, लागी जोग जुग तारी ।। उलटि पवन चक्र षटबेधा, मेर डंड रस पूरा । गगन गरजि मन सुन्न समाना, बाजी अनहद तूरा ॥ ६ ॥ क० ग्रं०: पृ० ६० । अर्थात् गुरु के संकेतों का अनुसरण करने पर मुझे प्रकाश के दर्शन हुए और उसने ब्रह्माग्नि प्रज्ज्वलित कर दी। चन्द्र व सूर्य आपस में दूर रहते हुए भी योग में मिल गये। श्वास के उलटने से षटचक्र का भेदन हो गया और मेरुदंड व सुषुम्ना अमृत रस से भर गई । मन समाधि में लीन हो गया, गगन गर्ज रहा है और अनाहत भी बज रहा है । अवधू गगन मँडल घर कीजे । अमृत झरे सदा सुख उपजे, बंकनालि रस पोजे ।।