पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३२३

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चतुर्थ अध्याय २४३ के साथ किया गया रहता है और 'केवल कुंभ' की दशा में श्वास को पूर्ण रूप से नियन्त्रित कर लेने का भी उद्देश्य रखता है वहाँ निर्गणियों का प्राणायाम अनुभव में आता हुअा श्वास-नि:श्वास है जो अनुभूत होने के ही कारण स्वभावतः उस साधारण सांस लेने से अधिक गहरा होता है जिसका बहुधा हमें कुछ पता नहीं चलता। इस श्वास-क्रिया का अनुभब हम तभी करते हैं जब हमें कभी इसके विषय में कठिनाई जान पड़ती है। इसके सिवाय निगुणियों के लिए प्राणायाम एक सहायक साधना है जो नामस्मरण का पूरक बनाने के लिए की जाती है और उन्हें प्रत्येक निश्वास व प्रश्वास के साथ, इसे करते समय, ईश्वर का नाम स्मरण करना पड़ता है । इस बात को और भी स्पष्ट करने के लिए मैं दादू की कुछ साखियों को उद्धृत करूंगा- दादू नीका नांव है, हरि हिरदे न विसारि । मूरति मन माँहै बसै, साँसै साँस सँभारि ॥ साँस साँस सँभालता, इक दिन मिलिहै आइ । सुमिरन पैड़ा सहज का, सतगुर दिया बताइ ।। सं० बा० सं० भाग १, पृ० ७८ । अर्थात् दादू कहते हैं कि नाम अपूर्व वस्तु है, हरि को न भूलो। उसकी मूर्ति तुम्हारे भीतर प्रतिष्ठित हो जायगो, यदि तुम उसे अपने प्रत्येक श्वास के साथ स्मरण करते चलोगे । प्रत्येक श्वास के प्राणायाम ते मन बसि होई । तन में संसै रहै न कोई॥ वही, पृ० १६८। जबलग पौन तब मन मानो । साँस बिना मन ब्रह्मै जानौ ॥वही।। एक पवन के कि गये, सकल क्रिया थकि जायें। तब लग मन धावत रहे, जब लग पवन समाय ॥ वही, पृ० १६६।