पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३२२

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२४२ हिदी काब्य में निर्गुण संप्रदाय शरीर अनाहत नाद से गूंज उठता है।" "यदि तुम आत्मा को परमात्मा में मग्न कर देना चाहते हो तो सूर्य एवं चन्द्र को नियमित करो।" "जब षटचक्रों का भेदन हो जाता है तब योगी के पीने के लिए अमृत- स्राव होने लगता है। गोरखनाथ ने वहीं पर चन्द्र के बिना रहने पर भी चाँदनी देखी थी।" गोरखनाथ के आसनों का प्रसंग यदि छोड़ दिया जाय तो, उनमें तथा निगुण संप्रदाय के संतों में एक आश्चर्यजनक समानता दिखाई पड़ेगी। कोमल शुक्ल कला ही नहीं अपितु शब्दावली भी दोनों की एक ही समान है। सुरति, निरति, उन्मन श्रादि शब्दों को गोरखनाथ एवं अन्य संतों ने अपनी हिंदी रचनात्रों के अन्तर्गत एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया है। इसमें संदेह नहीं कि निर्गुणी संतों ने, अजपाजाप को योग की एक साधनाविधि के रूप में, गोरखनाथ के ही मत से लिया है। मन को एकाग्र करना व श्वास को नियंत्रित करना अजपाजाप की एक पूर्व विधि है जैसा कि अनुरागसागर के एक पद्य से प्रकट होता हैं- जाप अजपा हो सहज धुन, परखि गुर गम धारिये । मन पवन थिर कर शब्द निरखे, कर्म मनमथ मारिये।। बोधसागरं भा० २ पृ० १३ । क्योंकि जैसा कि गुलाल ने भीखा को बतलाया था "शब्द ब्रह्म है, बिना श्वास के मन ब्रह्म है, परंतु श्वास के साथ रहने पर माया हो जाता है जिसमें त्रिगुण के खेल चल रहे हैं । श्वास के नियंत्रित हो जाने पर मन का चक्कर लगाना बन्द हो जाता है और सभी कार्य रुक जाते हैं।"® किंतु जान पड़ता है कि जहाँ योगियों का प्राणायाम बल शब्द सो ब्रह्म पवन मन माया । तामें निर्गुन खेल बनाया ॥ महात्माओं की बानी पृ० १६० ।