२४४ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय साथ सावधान रहने पर वह एक दिन श्राकर तुमसे भेंट करेगा। स्मरण प्रज्ञा का मार्ग है जिसे हमें सदगुरु ने बतला दिया है।" सहजोबाई के शब्दों में भी- सहज स्वास तीरथ बहै, सहजो जो कोइ न्हाय । पाप पुन्न दोनों छुटें, हरि पन पहुँचे जाय ॥ वही पृ० १६२ । अथ श्वास की स्वाभाविक पवित्र धारा प्रवाहित हो रही है, सहजो का कहना है कि, जो कोई भी कर सके उसमें स्नान कर ले। उसके द्वारा सुम पुण्यं एवं पाप दोनों के ही बंधनों से छुट जानोगे, और, इस प्रकार, हरि के पद तक भी पहुँच सकोगे। यदि निगुणियों की रचनाओं से उद्धत की गई पंक्तियों को इस विचार से पढ़ा जाय तो विदित होगा कि इस विषय में कुछ स्पष्ट न बत- लाती हुई भी, वे इनके साथ पूर्ण मतैक्य रखती हैं। इसके साथ यह भी दीख पड़ेगा कि उक्त उद्धरणों में से जो निगुणियों की रचनाओं से दिये गये हैं, एक भी तुलसी साहब अथवा शिवदयान का नहीं है । वास्तव में वे अपने को योग के एक नितांत भिन्न मत का प्रतिपादन करने वाला बतलाते हैं। परंतु यद्यपि वे प्राणायाम को एक निम्न श्रेमी का साधन-मार्ग ठहराते हुए दीख पड़ते हैं, फिर भी उनकी साधन-क्रिया कबीर अथवा अन्य संतों द्वारा स्वीकृत प्रणाली से भिन्न प्रतीत नहीं होती। पूर्ववर्ती निर्गुणियों की साधना वहाँ तक जाती है, जिसे त्रिकुटी-ध्यान कह सकते हैं । त्रिकुटी जो दूसरे शब्दों में गगन कहलाती है उपनिषदों में काशी का प्रतीक मानी जाती है और कबीर भी ऐसा हो कहते हैं। सो जोगी जाके सहजि भाइ । मन मुद्रा जाकै गुरु को ज्ञान, त्रिकुट कोट में धरत ध्यान । काया कासी खोजे बास, तहँ जोति सरुप भयो परकास ।। क० ग्र० पद ३७७, पृ० १२३ ।
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