. । चतुर्थ अध्याय २४५ अर्थात, वास्तविक योगी वही है जिसने सहज भाव को उपलब्ध कर लिया है, जिसकी मुद्रा गुरु का ज्ञान है, जो त्रिकुटी के कोट में ध्यान लगाता है और जो शरीरस्थ काशी में आत्मा के निवासस्थान की खोज करता है। त्रिकुटी को इतना महत्व देने का कारण यह है कि यही सगुण. एवं निर्गुण दोनों का अर्थात् भौतिक एवं आध्यात्मिक लोकों का मिलन स्थान है । जैसा कि मारवाड़ो दरिया साहब ने कहा है “दरिया त्रिकुटी के संगम पर दोनों पक्ष देखता है । इसको एक अोर निराकार है और इसकी दूसरी ओर आकार वर्तमान है । मन, बुद्धि चित्त एवं अहंकार की दौड़ त्रिकुटी तक ही सीमित है, उसके आगे ब्रह्म का निवास है जो सुरति को दृष्टिगोचर होता है। इस प्रकार त्रिकुटी ही वह स्थान है जहाँ साधक शुद्ध भौतिक प्रदेश से निकल कर आध्यात्मिक में आगे बढ़ता है। तुलसी साहब और शिवदयान के अनुयायी भी जिनमें राधास्वामी सत्संगवाले प्रधान हैं त्रिकुटी ध्यान का अभ्यास आत्मानुभूति के लिए किया करते हैं । राधास्वामी सत्संग की अागरा वाली शाखा के अध्यक्ष 'साहिब जो' रचित आध्यात्मिक नाटक 'स्वराज्य में मास्टर रामदास-द्वारा अपने शिष्य को यह परामर्श दिलाया गया है कि वह आत्मा को इस रहस्यमयी काशी अर्थात् त्रिकुटी में हो उपलब्ध करे और इस मन के लिए 'जावालोपनि- पत्' का उद्धरण दिया गया है । इसमें संदेह नहीं कि शिवदयाल ॐ दरिया देखै दोइ पख, त्रिकुटी संधि मझार । निराकार एक दिशा, एकै दिसा प्रकार ।। मन बुधि चित हंकार की, है त्रिकुटी लग दौड़। जन दरिया इनके परे, ब्रह्मसुरति की ठौर ।। बानी, पृ० ११ । X अंक २, दृश्य ४, पृ०४७ ।
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