चतुर्थ अध्याय २४७ अाधुनिक गूढ़ विज्ञान आँखों से ही प्रारंभ करते हैं और प्राचीन लोग भी इसकी उपेक्षा नहीं करते थे। अाधुनिक रहस्य - विज्ञानी की उपासना . त्राटक तक पहुँच जाती हैं जो लययोग-द्वारा आँख के अभ्यास के लिए विहित है और जिसमें दृष्टि किसी केन्द्र बिन्दु पर स्थिर की जाती है। प्राचीन लोग दो अन्य दृष्टि का भी उपदेश देते थे जिनमें एक नासान दृष्टि' अर्थात् अपनो दृष्टि का नाक के सिरे पर ठहराने का उपदेश भगवद्-गीता ने भी दिया है । और दूसरी अर्था भ्र मध्य दृष्टि' अर्थात् आँखों की भवों के मध्य भाग में दृष्टि लगाना है (जैसा कि ऊपर के उद्धरणों से पता चलेगा) राधास्वामी मतानुयायी भी स्वीकार करते हुए जान पड़ते हैं। पूर्वकालीन निर्गुणी संत भी आँख की उपेक्षा नहीं करते थे और उनकी भोसाधना-पद्धति तुलसी व शिवदयाल जैसे अतिशय- वादियों की साधनाओं के समान थी जैसा कि दादू के निम्नलिखित पद्य से प्रकट होगा- जहाँ जगत गुरू रहत हैं, तहाँ जे सुरति समाय । तो दोनों नैना उलटि कर , कौतुक देखै जाय ।। 'बानी' ज्ञान सागर पृ० ७०, १७ । अर्थात् तुम यदि अपनो सुरति को जगतगुरु में लीन कर देना चाहते हो तो, इस कौतुक को तुम्हें अपनी दानों आँखों को उलटकर देखना चाहिए। से ऐसे पद्य जिन्हें कबीर की रचना कहा जाता है, किंतु जिनको प्रमाणिकता में संदेह है, इस बात को बहुत स्पष्ट रूप में प्रकट करते हैं। इनमें से एक में कहा गया है कि "आँखों में कनीनिका चम- कती हैं और उनके बीच द्वार बने हुए हैं। उन्हीं द्वारों से दूरबीन . बहुत अध्याय ६, श्लोक १३ ।
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