पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३३०

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२४८ हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय लगाकर देखो और भवसागर के पार उतर जानो" गरीवदास ने कहा है ।"शून्य के विस्तार की ओर आँखें उलटकर देलो तो तुम्हें वह सर्वत्र दीख पड़ेगा।"x जगजीवनदास द्वितीय ने भी कहा है "यह ऐसी युक्ति है कि इसमें ध्यान दृढ़ हो जाता है, आँखों को उलटकर देखने से अपने को सत् में लीन कर लोगे और तुम्हें शान्ति मिल जायगी।" इस प्रकार जिन-जिन संतों को हमने निर्गुण संप्रदाय में सम्मिलित किया है उन सब की प्रणाली वस्तुतः एक ही थी । जो भिन्नताएँ दीख पड़ती हैं वे ऊपरी हैं और वे केवल इस कारण हैं कि भिन्न-भिन्न उप- देशकों ने एक ही प्रकार की साधनाओं के भिन्न-मिन्न पाश्चों पर विशेष बल दे दिया है। यद्यपि इन पंथों की गुप्त बातें हमसे सावधानतापूर्वक छिपायी जाती हैं फिर भी जो कुछ हम उनके उपदेशों से ग्रहण कर पाते हैं उनसे प्रतीत होता है कि सचेत होकर प्रत्येक अनुभूत एवं स्वभावतः गहरे श्वास-प्रश्वास के साथ नाम-स्मरण करने और साथ ही भ्र मध्य दृष्टि को भी स्थिर बनाये रखने की क्रिया सभी निर्गुणियों की प्रधान साधना है जिसमें से तुलसी साहब और शिवदयाल दृष्टि वाले . अंश . अाँखी मध्ये पाँखी चमके पाँखी मध्ये द्वारा । तेहि द्वारे दुरब्रीन लगाओ, उतरो भौजल पारा॥ क० का० पृ० १०३। x उलट नैन वे सुन्न विस्तर, जहाँ तहाँ दीदार है। बानी, पृ० १०६। + ऐसी यह युक्ति पाय ध्यान नहि मीट । नैनन तें उलटि निरखि सत समाय लीटें ।। बानी, पृ० ११॥