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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३३७

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चतुर्थ अध्याय २५५ सहजोवाई ने भी इन सभी में सिद्धि का प्राप्त कर लेना आवश्यक बतलाया है। उनके गुरु चरणदास की रचना 'ज्ञान स्वरोदय' में तो शकुनों तथा शुभाशुभ लक्षणों की भी चर्चा की गई है। इस वहिर्मुख प्रवृत्ति का विरोध होना आवश्यक था और इस कार्य को तुलसी साहब एवं शिवदयाल ने अपने हाथ में लिया था जो स्वयं सब कहीं अतिमात्रता के सिद्धान्त स्वीकार करते थे। निर्गुणियों को इस बात में विश्वास है कि 'सबद' अथवा सूक्ष्म एवं सक्रिय शब्द प्रत्येक व्यक्ति के अन्तर्गत ध्वनित होता रहता है । उस सूक्ष्म शब्द के गुंजन ही सभी कुछ वर्तमान पदार्थों के ७. अंतर्दृष्टि मूल कारण हैं और उन्हीं के द्वारा सृष्टि का व्यापार निरंतर चलता रहता है। श्राधुनिक वैज्ञानिक भी अब इस बात को समझने लगे हैं कि यह कंपन किस प्रकार सभी सृष्टिक्रम की जड़ में काम करते हैं। सूक्ष्म दशा में भी ये कंपन, शब्दों के रूप में, ध्वनि करते हैं, रंगों के रूप में प्रकट हुआ करते हैं और भिन्न-भिन्न प्राकृतियाँ ग्रहण करते हैं । इन शब्दों को सुनने, इन रंगीन प्रकाशों को देखने तथा इन प्राकृतियों को प्रत्यक्ष करने के लिए हमें चाहिए कि वाह्य पदार्थों की ओर से अपनो मानसिक वृत्तियों को हटाकर अपने को भीतर के लिए भी और सचेतन बना लें। कबीर के समझे जाने वाले एक प्रक्षिप्त पद में जिसका मैंने पहले के पृष्ठों में एक से अधिक बार उल्लेख किया है यह कहा गया है कि "इस शब्द वा अनाहतनाद को सुनने के लिए अपनी आँखों, कानों तथा मुख के छिद्रों को बन्द कर देना पड़ता है।"* कबीर ने ग्रंथ साहब में संग्रहीत एक पद द्वारा इस बात का समर्थन किया है और . आँख कान मुख बंद कराओ । अनहद भिंगा नाद सुनाओ। क० बा०, पृ० १०४॥