२५६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय कहा है कि "जब मैंने सभी द्वारों को बंद कर दिया तो सभी बाजें बजने लग गये ।" 'लय योग संहिता तंत्र' तथा 'वृहदारण्यक' एवं 'छांदोग्य' उपनिषदों में भी इस धारणा का अनुमोदन किया गया है। उक्त तंत्र में लिखा है कि दोनों कानों, दोनों आँखें और नाक बंद कर देनी चाहिए, तभी शुद्ध सुषुम्ना के मार्ग में शब्द सुन पड़ेगा।"x वृहदारण्यक में कहा गया है कि "यह शब्द उस अंतः पुरुष को गर्जना है जो अन्न को पचाता है और यह केवल कानों को बंद करने पर सुनाई देता है इसे मरणासन्न मनुष्य नहीं सुन सकता।"+ छान्दोग्य में भी लिखा है कि 'अन्तरात्मा का प्रमाण स्वरूप जो शब्द है वह कानों के बंद करने पर बैलों की हुंकार, बिजली की कड़क अथवा अग्नि की धधक के रूप में सुन पड़ता है ।" : परन्तु इन उपनिषद् योग, व निर्गुण मत-संबंधी प्रमाणों से यह न समझ लेना चाहिए कि ये ग्रंथ इन्द्रियों का बाहर से ही रोकना प्रतिपादित करते हैं, क्योंकि इसके द्वारा आध्यात्मिक साधना एक साधा- रण व्यापार मात्र बन जायगी और इसके लिए कोई नाम मात्र भी चिंता न करेगा। यहाँ पर बंद करने का अभिप्राय बाहर से बंद करने पर नहीं प्रत्युत भीतर से निरोध करने से है । मन को वाह्य पदार्थों से पूर्णत: खींच लेना चाहिए कि ये उसे किसी प्रकार भी प्रभावित न कर सकें। इस प्रकार की साधना उस 'चित्तवृत्ति निरोध' एवं 'प्रत्याहार' को भी सूचित ॐ मूंदि लिये दरवाजे । बाजिले अनहद बाजे ।। क० ग्रं॰, पृ० ३२५ ॥ x 'लययोग संहिता तंत्र' पृ० नं० १। + 'बृहदारण्यक उपनिषत्' ५-६-१ ।
- 'छांदोग्य उपनिषत्' १३-८