२६० हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय सहस्रदल से प्रारंभ करते हैं और उससे नीचेवाले चक्रोंवाले अपने अनु. भवों की कोई चर्चा नहीं करते। यहाँ पर नीचे हम उनके एक पद में दिये गये वर्णन को संक्षिप्त रूप में देते हैं और उस चित्र को पूर्ण करने के लिए उनके अन्य फुटकर वचनों को भी सम्मिलित कर देते हैं । ये कहते 'इस प्रकार, सर्वप्रथम, मैं सहस्रदल में एक पचरंगी फुलवारी (पंच- भौतिक जगत् जो हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियों का विषय है ) और भीतर एक दीपक देखता हूँ । यहाँ पर अनाहत एक घंटी की ध्वनि के समान सुन पड़ता है और एक शंख के निर्घोषवत् भी सुनाई देता हैं। तब त्रिकुटी अर्थात् नीला चक्र आता है जो गुरु का निवासस्थान है जहाँ पर ओंकार का शब्द मेव की भाँति गर्जन करता है और मृदंग के समान ध्वनित होता है । इस चार दलवाले चक्र में कर्म के बीज भुन जाते हैं । उस बंकनाल से होकर जिसमें ऊँची-ऊंची पहाड़ियों और गहरी घाटियाँ हैं, वनों, पर्वतों, उद्यानों, नहरों एवं निर्मल जल से भरी नदियों के दृश्य देखते हुए हम तीसरे अर्थात् शून्य मंडल में पहुँच गये जहाँ पर वीणा व सारंगी का शब्द सुन पड़ता है और जहाँ पर मानसरोवर में स्नान किया जाता है । शून्य से परे महाशून्य है जो सत्तर पालंग तक विस्तृत है ( हमारा विश्व एक पालंग तक विस्तृत समझा जाता है) और जहाँ पर घोर अन्धकार के अन्तर्गत चार गुप्त शब्द सुन पड़ते हैं और हरा, श्वेत व पीत रंग दीख पड़ता है। उस अंधकार में पाँच ऐसे-ऐसे विश्व अंतर्हित हैं जिनमें से किसी के भी सामने हमारा जगत् कुछ महीं। वहाँ पर उच्च श्रेणी की मनमौजी आत्माएँ बद्ध रहा करती हैं। जब कोई शक्तिशालिनी सुरत' इधर से होकर जाती है तभी उनके मुक्त होने का अवसर पाता है। मवर गुफा अर्थात् चौथे देश का मार्ग प्रत्यंत प्राक- षक है । इसके दाहिनी ओर कई 'दीप' (द्वीप ) हैं और इसकी बाई ओर बहुत से खंड (प्रदेश) हैं, जहाँ के मकान बहुमूल्य पत्थरों के बने हुए हैं और जिनमें हीरे व जाल जड़े हुए हैं। वहाँ का शब्द, 'सोऽहम्' है,
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