। चतुर्थ अध्याय २६१ स्वर वीणा का है और प्राकार ज्योतिमंडित श्वेत सूर्य का सा है । यहाँ पर अनेक निवास स्थान हैं जहाँ भक्तगण रहा करते हैं और नाम की शरण में रहते हुए लीला करते तथा अमरत्व के रस का प्रास्वादन किया करते हैं सत्यलोक में अनेक स्वर्गमय महल हैं और वहाँ पर अमृत से भरे हुए कई तालाब तथा खाइयाँ हैं जहाँ अनंत सूर्य एवं चन्द्र का प्रकाश दीख पड़ता है। यहाँ पर हंस का सौंदर्य एक विचित्र प्रकार का हो जाता है । सहज सुरत अर्थात् सब के भीतरी अंतरात्मा के प्रश्न का उत्तर देने पर कि उस मार्ग का रहस्य संतों ने बतलाया है आगंतुक उस सत्य लोक में प्रवेश पाता है जहाँ पर हमने 'सत्यनाम पुरुष' का साक्षात् कर प्रानन्द का अनुभव किया था। एक पुष्प के भीतर से सत्य पुरुष के शब्द ने प्रश्न किया था 'तू कौन है और यहाँ क्यों पाया है ?" मैंने उत्तर दिया था कि "मैंने गुरू से भेंट की थी और उन्होंने मुझे इसका भेद बतलाया था । उसी की कृपा से मैंने ये दर्शन उपलब्ध किये हैं" इस उत्तर से सन्तुष्ट होकर सत्य पुरुष ने सत्यलोक का भेद मुझे बता दिया और अपनी शक्ति प्रदान कर मुझे उसमें बढ़ने का संकेत किया । अलख पुरुष का सौंदर्य अतुलनीय है। अगमपुरुष का विस्मय- कारी सौंदर्य वर्णनातीत है । मैंने तीनो पुरुषों और उनके लोकों को देखा और अंत में उस एक के साथ मिल गया जो प्रेम का भी सार है। राधास्वामी यह बात पुकार कर कह रहे हैं।" उक्त दोनों वर्णनों अर्थात् गरीबदास के निम्नस्तर वाले अनुभव तथा शिवदयाल के उच्च श्रेणी वाले अनुभव का एक संश्लिष्ट रूप उस पद में पाया जाता है जो कबीर की रचना कहकर प्रसिद्ध है, किंतु उनका नहीं है और जिसका उल्लेख प्रसंगवश मेंने पहले के अनेक • 'सारबचन' भाग १, पृ० १०-७० ।
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