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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३५०

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२६८ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय विकसित रहते हैं और अनेक प्रकाश दीप्तिमान हो उठते हैं ।* द्रष्टा अपने को उस अमर देश में पहुँचा हुआ पाता है जहाँ अमरों का ही निवास है "रोग व शोक का वहाँ नाम नहीं रहता" । निर्माणी अपने उस प्रदेश को बेगम देश वा शोकरहित निवासस्थान नतलाते हैं। किंतु यह. उल्लास ऐसा नहीं जो दुःख के विपरीत होता है । जिसे यह ज्ञान प्राप्त है वह समझता है कि संसार के सुख भी आगामी दुःख की भूमिका हैं"। ईश्वरीय लीला का उपयोग शरीर द्वारा नहीं किया जा सकता। सांसारिक सुखों का आकर्षण व सांसारिक दुःखों की टीस किसी ज्ञानी को प्रभावित नहीं कर पाते । “जब प्रेम ने मेरे लिए ईश्वरीय द्वार खोल दिये तो संसार के लगाव मेरा क्या कर सकते हैं ? ईश्वर के दर्शन हो जाने पर शूल भी मेरे लिए सुख की सेज बन गया ।" ईश्वरीय लीला का उल्लास इस प्रकार साधक का अपना केन्द्र बन जाता है और साधक उसके स्फुरण का केन्द्र होता है। यह उसके पूरे आपे वा सब कुछ का स्थान ग्रहण कर लेता है। यही उसकी 'शक्ति' है, उसकी 'साहिबो' है और इस परिमित विश्व में उसकी अनन्तता भी है। प हम वासी वा देस के, बारह मास बिसास । प्रेम झिर विगसै कमल, तेज पुंज परगास ॥ वही, पृ० ४३ । झूठे सुख को सुख कहें, मानत हैं मन मोद । खलक चवीणा काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ।। क० ग्रं॰, पृ० ७१।

  • ममिता मेरा क्या करे, प्रेम उघाड़ी पौलि ।

दरसन भयो' दयाल का, सूल भई सुख-सौडि ।। वही, पृ० १६ । .