पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३४९

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चतुर्थ अध्याय २६७ वह अतिचेतन दशा जिसमें परमतत्व का अनुभव होता है आध्यात्मिक अनुभूति को सर्वोच्च स्थिति है और जिसका प्राप्त करना पंथ का परम लक्ष्य है। वह अनुभव किसी भौतिक जीवन ८. परचाः के देखने की भाँति प्रत्यक्ष एवं वास्तविक होता अंतिम अनुभूति हुआ भी भौतिक व्यापार नहीं है । ईश्वर देखने- वाले से भिन्न किसी पदार्थ के रूप में दृष्टि- गोचर नहीं होता, यह दोनों देखने की क्रिया में ही एक रहते हैं । ईश्वर का प्रकाश भौतिक अर्थ में प्रकाश नहीं और न इसी कारण वह हमारी चाक्षुष शिराओं द्वारा ग्रहण किया जा सकता है। यद्यपि इसकी तुलना कभी-कभी अनेक सूर्यों की प्रभा से की जाती है, तो भी इसके आधार सूर्य वा चन्द्र नहीं हैं । यह बिना सूर्य के सूर्य-प्रकाश है और बिना चन्द्रमा के चाँदनी है। 'भीतर की ज्योति पूर्ण दीप्ति के साथ प्रकाशित होती है, किंतु इसके प्रज्ज्वलित रखने के लिए किसी तेल वा बत्ती की अावश्यकता नहीं पड़ती। उस परम प्रकाशक पुरुष के खेल को किस प्रकार वर्णन करूँ"* इस भाँति चेतन अनुभव का वर्णन किसी प्रकार भी नहीं हो सकता और इसी कारण इसे गूंगे का स्वाद कहा जाता है और वह परमानंद की स्थिति द्वारा ही प्रमाणित होता है। जब आध्यात्मिक आँखें खुल जाती हैं तो जीवन अनंत व अति गंभीर हर्ष में परिणत हो जाता है । प्रबुद्ध कबीर का कहना है-“मैं उस देश का निवासी हूँ जहाँ वसंत का आनंद वर्ष भर मिलता है, वहाँ प्रेम की वर्षा होती है, कमन

  • जगमगं अंदर में हिया, दिया न बाती तेल ।

परम प्रकासिक पुरुष का, कहा बताऊँ खेल ।। सं० बा० सं० पृ० २३१