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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३५४

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२७२ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय क्षणिक है।"* किंतु निर्गुणमत के संतों के अनुसार यह कोई क्षणस्थायी उल्लास नहीं प्रत्युत एक चिरस्थायी आंतरिक दशा है जो स्थिर हो जाया करती है। कबीर ने कहा है कि, "हे साधो यह साहजिक संयोग सबसे उत्तम है। जिस दिन से मैं गुरु कृपा से अपने साथी से मिला तबसे हम दोनों के प्रेम भाव का कभी अंत नहीं हुआ । जहाँ कहीं मैं जाता हूँ उसकी परिक्रमा करता हूँ और जो कुछ भी कर पाता हूँ वह उसकी सेवा के रूप में है । जब मैं सोने जाता हूँ तो उसे दण्डवत करता हूँ; अन्य किसी का भी पूजन नहीं करता । जो कुछ भी बोलता हूँ वह उसका नाम है और जो कुछ भी सुनता हूँ वह उसका स्मरण है। मेरा खाना पीना तक उसकी पूजा है। मेरे लिए गृह व खंडहर दोनों एक समान हैं क्योंकि दुई का भाव दूर हो गया है। मैं न तो अपनी आँखें मूदता हूँ और न कान ही बंद करतो हूँ; मैं अपने शरीर को कष्ट भी नहीं देता। खुली आँखों से उसकी सौंदर्यमयी मूर्ति को देखा करता हूँ। उसे पहचानता हूँ और हँसा करता हूँ। मुझे ऐसी तारी लगी है जो उठते बठते वा किसी भी दशा में नहीं छुटती । कबीर कहते हैं कि यहो अतिचेतन का जोवन है जिसका मैंने वर्णन किया है। मैं उस पद में लीन हो गया हूँ जो सुख हे सुखदा में से वर्णहत ह है जैस परमपदं कहत हो गया चरणदास ने भी कहा है कि, जिस समय मैंने अनाहत की ध्वनि सुनी है तबसे

ख्वाजाखान "स्टडीज़ इन तसव्वुफ़" पृ० १२६ । साधो सहज समाधि भली । गुरु प्रताप जा दिन से जागी दिन दिन अधिक चली । जहँ-जहँ डोलौं सो परिकरमा, जो कुछ करों सो सेवा । जब सोवौं तब करौं दण्डवत, पूजौं और न देवा ॥ कहौं सो नाम, सुनौं सो सुमिरन, खावँ पियों सो पूजा । गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा।