पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३५५

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, चतुर्थ अध्याय २७३ मेरो सारी इन्द्रियाँ शिथिल पड़ गई हैं; मन गलित हो गया है और सभो दुराशा जल भुन गई हैं । आँखे उन्माद में श्राकर घूम रही हैं और शरीर विश्रांत हो गया है क्योंकि सुरत, आत्मा उस चिद् में लोन है। इस सहजावस्था ने आलस्य तोड़ दिया है और प्रत्येक श्वास में मुझे आनंद मिल रहा है।* गुलाल भो कहते हैं कि अानन्द को सुहावनो बूंदें पड़ रही हैं। यह उल्लासप्रद समय सतगुरु द्वारा प्रभावित होकर मनभावने ढंग से प्रानन्द- दायक हो रहा है। शून्य संसार के चतुर्दिक घनघोर घटाएँ उमड़ रही हैं । गुलाल का कहना है कि जिन पर प्रभु को कृपा होती है उनके लिए सावन भादों के बरसात वाले महीने सदा बने रहते हैं। . आँख न मूंदौं कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं । खुले नैन पहिचानौं हँसि हँसि, सुन्दर रूप निहारौं ।। सबद निरंतर से मन लागा, मलिन बासना त्यागी । ऊठत बैठत कबहुँ न छूटै, ऐसी तारी लागी । कह कबीर यह उनमुनि रहनी, सो परगट कर गाई । दुख सुख से कोइ परे परम पद, ते हि पद रहे समाई ॥ सं० बा० सं०, पृ० १४-१५ ।

  • जबसे अनहद घोर सुनी।

इंद्री थकित गलित मन हूवा, पासा सकल भुनी ॥ घूमत नैन सिथिल भइ काया, अमल जु सुरत सनी । रोम रोम आनंद उपज करि, आलस सहज भनी । वही पृ० १२० । आनंद बरखत बंद सुहावन । उमगि उमगि सतगुरु बर राजित, समय सुहावन भावन॥