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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३५७

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चतुथ अध्याय २७५ निगुणियों के विचार से न तो मध्ययुगीन ईसाई मिस्टिक और न सूफी ही उस पूर्ण दशा को प्राप्त कर पाये थे। वे अभी तक ज्ञान के अन्तस्तम स्रोत से लाभान्वित नहीं हो सके थे और न इसी कारण उन्हें सभी का सहज ज्ञान हो सका था । इसी कारण उनकी अनुभूति क्षणभंगुर वस्तुओं की भाँति क्षणस्थायिनी थी। किन्तु निम्न श्रेणी की श्राध्यात्मिक अभिव्यक्ति जिससे मनुष्य की भौतिकता उसकी श्राध्या- त्मिकता द्वारा सदा के लिए दब नहीं जाती चपल व क्षणिक घटना सिद्ध होती है और उससे क्षणिक हर्ष प्राप्त होता है और इसीलिए उसे अंतिम अनुभूति नहीं कह सकते। इन सीमा-मर्यादाओं के रहते अन्तदृष्टियों का क्षणिक होना अनिवार्य है। परंतु एक बार जहाँ पूर्ण जागृति हो गई, तो फिर सोना व स्वप्न देखना नहीं होता है। ऐसी अनुभूति द्रष्टा के लिए अतीत घटना की स्मृति मात्र नहीं रहती प्रत्युत उसके व्यक्तित्व का अङ्ग बन जाती है। केवल यही उसमें टिकती है क्योंकि वस्तुतः उसकी परमात्मा के साथ पूर्ण एकता की सिद्धि है और इसी दशा में वह उसके अपने श्रात्मा का स्वरूप है। अतएव किसी को ऐसा न करना चाहिए कि अपने श्रापको परमात्मा कह उठने की शीघ्रता कर दे।* उसे जो अनुभूतियाँ उपलब्ध हैं वे सभी उसकी अनुभूति नहीं भी हो सकतीं । जो कुछ भी अनुभव किसी साधक को प्राप्त होता है उसपर पूर्णरूप से चिंतन किया जाना चाहिए, उसका मनन होना चाहिए और उसे एक-एक करके परिणामित करते जाना चाहिए जब तक वह अंतिम मिलन की दशा को प्राप्त न हो जाय कि जब अनुभूति स्थिरता प्राप्त कर लेती है और साधक के लिए परमात्मा के

पहुँचेंगे तब कहेंगे, उमड़ेंगे उस ठाइँ । अजहूँ बेरा समँद में, बोलि बिगू, काइँ॥ क० ग्रं॰, पृ० १८,५।