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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३५८

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२७६ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय सान्निध्य को अपनाने की चेतना को स्थायित्व प्रदान करने की चेष्टा नहीं करनी पड़ती। इसी को जारना व पचाना, अथवा अनुभव को स्थिरता देना भी कहते हैं । / अनुभूति की स्थिरता हो इस बात को सिद्ध कर देती है कि जिन श्राभासों को इसके लिए साधन बनाया गया था उनको अब आवश्य- कता नहीं रह गई । शारीरिक व्यायाम के क्रम एवं आध्यात्मिक साधना- पद्धति में एक महान् अंतर यह है कि जहाँ पहले के लिए शरीर को उप- युक्त स्थिति के अभ्यास का सदा नियमित रूप से चलता रखना आवश्यक है वहाँ अंतिम सत्य की अनुभूति उपलब्ध हो जाने पर गूढ़ अभ्यासों का वह महत्व नहीं रह जाता है; क्योंकि यद्यपि अनुभूति वा अतदृष्टि के लिए पहले प्रयत्न 'अपेक्षित होते हैं किंतु आगे चल कर वे स्वतः होने लगते हैं । "मन को थोड़ा-थोड़ा संयमित करो तो वह मालिक में लग जायगा ; जब मन उस उनमन से लग गया तो उसका घूमना बंद हो जायगा।* -दादू। इस अंतदृष्टि वा अंतिम सत्य की अनुभूति की एक विशेषता यह कि द्रष्टा इसे किसी पर प्रकट नहीं कर सकता। इसको जानने के लिए इसका स्वयं अनुभव करना आवश्यक है । न तो हमारी भाषा और न हमारी मानसिक योग्यतो ही इतनी पूर्ण है कि पहली इसे पूर्णत: व्यक्त

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  • थोरा थोरा हटकिये, तब रहेगा लौ लाइ।

जब लागा उनमन्न सों, तब मन कहीं न जाइ ।। बानी भाग१,पृ० १०३ । 1 ऊपर को मोहि बात न भावै, देखे गावै तो सुख पावै। कहै कबीर कछु कहत न आवै, परचै बिना मरम को पावै॥ क० ग्रं॰, पृ० १६२ ।