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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३५९

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sur चतुर्थ अध्याय २७७ करे और दूसरो उसे अपनाये । यह एक गूंगे के स्वाद को भाँति है जिसे न तो वह व्यक्त कर सकता है और न दूसरे उसे समझ सकते हैं। कबीर कहते हैं “यह गूंगे का गुड़ है जिसका स्वाद गूंगा ही जानता है।* इसी कठिनाई के कारण अस्तित्व का यह अंश हमारे लिए एक मुद्रित रहस्य के रूप में बना रहता है और इसी से रहस्यवाद रहस्य- वाद कहलाता परन्तु उस द्रष्टा के लिए जिसे हम अपनी भाषा में मान- सिक योग्यता की असमर्थता के कारण मर्मी कहते हैं यह कोई रहस्य की बात नहीं। वह परमात्मा को इतना प्रत्यक्ष व स्पष्ट रूप में देखता है जितना हम भौतिक पदार्थों को देखते हैं बल्कि इससे अधिक स्पष्टता के साथ । क्योंकि द्रष्टा उस दृश्य का पूर्ण रूप देखता है, किंतु भौतिक पदार्थों का हम केवल वाह्य रूप ही देखते हैं, उनके प्राभ्यंतरिक अर्थ को नहीं जान पाते। उनके आभ्यंतरिक अर्थ को केवल वही जान सकता है जिसे उस अंतर्दृष्टि की एक झलक मिल गई है । मर्मी की जीवन- पद्धति इसी कारण स्वयं उसके लिए गूढ़ नहीं बल्कि हमारे लिए ही गूढ़ है क्योंकि हमें उसकी अनुभूति एक मुद्रित रहस्य बनी रहती है। इसी भाँति, अपनी स्वीकृतियों के अनुसार निर्गुणी उस अतिचेतन अनुभव को प्राप्त करता है जिसमें उसे जीते जी अंतिम सत्य की अनुभूति होती है और जिसके कारण वह भी उन्मुक्त कहलाता है। निर्गुणियों के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के लिए भौतिक शरीर को मृत्यु का हो जाना आव- श्यक नहीं। जिन मतों के अनुसार मोक्ष मृत्यु के अनन्तर प्राप्त होता है वे अधिकतर अंधविश्वासी लोगों की श्रद्धालुता से लाभ उठाया करते हैं। जब यहीं अपने दैव पर विजय प्राप्त नहीं कर सके तो कौन जानता है कि मृत्यु के अनन्तर क्या होगा ? परन्तु निर्गुणियों की स्थिति स्पष्ट व बुद्धि- - 1

  • कहै कबीर घरही मन माना, गूगै का गुड़ गूगै जाना।

वहीं पृ० १०६, ६॥