२८२ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय है और इसी कारण वे इनसे भला उन संसारियों को समझने थे जिन्हें प्रभु का भय बना रहता है।" निर्गुण पंथ मूलत: एक प्रकाश का मार्ग है । जो सभी प्रकार के प्रज्ञान व अंधकार को दूर कर देना चाहता है । इस प्रकाश के सामने कोई अंध- विश्वासी नहीं ठहर सकता। उन अंधविश्वासों के ही समान जो श्राद्ध के समय किये गये पिंडदान का मत पूर्व पुरुषों तक पहुँचना मानना है ; जो मक्का वा जगन्नाथ तक (हज वा तीर्थयात्रा के निमित्त जाने को फलप्रद समझता है और जो एकादशी, मुहर्रम जैसे त्यौहारों के दिन उपवास रखने को धार्मिक महत्व देता है। उन अन्य अंधविश्वासों से भी समाज को मुक्त कर देना चाहते थे जिनसे लोगों का सारा जीवन व्यस्त रहा करता है । कबीर ने इन अंधविश्वासों का सामना अपने मरते समय भी किया और अपने शुभचिंतकों के अनेक बार प्रार्थना करने पर भी उन्होंने उस मगहर का परित्याग नहीं किया जहाँ मरने पर नर्क का मिलना निश्चित समझा जाता था और न उस काशी तक ही गये जहाँ की मृत्यु-द्वारा मनुष्य शीघ्र मुक्त हो जाता है । मलूकदास का कहना था कि, "इतने प्रकार के अंधविश्वासों को दूर कर दो। यात्रा पर जाते समय किसी ज्योतिषी से दिन न पूछो, कोई दिन अशुभ नहीं। संध्या समय बिना संकोच भोजन कर लो, जो उसे राक्षस का समय कहते हैं वे अभागे मूर्ख हैं । यदि तुम अच्छे हो तो सभी भला है। किसी बात को बुरी न कहो। यद्यपि दार्शनिक दृष्टि से भले व बुरे में कोई वास्तविक अंतर पृहरयो काल सकल जग ऊपर, माहिं लिखे सघ ज्ञानी । क० ग्रं० पृ० १७८ । | ज्ञानी मूल गँवाईया, प्रांपण भये करता । ताथें संसारी भला, जो रहे डरता ।। वही पृ० ४१ ।
- सं० बा० सं०, भाग १, पृ० १०५ ।