पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३६७

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। चतुर्थ अध्याय हैं । उनका संबन्ध अात्मा से न होकर शरीर मात्र से है । निर्गुणियों ने इस विषय में पूरे बल के साथ चर्चा की है। जैसा कि हम प्रथम अध्याय में ही देख चुके हैं। निर्गुणो लोग सामाजिक एकता एवं वर्ग तथा जातिगत समानता के पक्षपाती थे, वे शूद्रों को ब्राह्मण वा अन्य वर्गों के पूर्णतः समान मानते थे। कबीर उन्नत वर्णों व विशेष कर ब्राह्मणों के प्रति, अति निष्ठुर यदि ब्राह्मण शूद्रों से स्वभावतः उन्नत है तो वह भी इस संसार में उसी अपवित्र मार्गद्वारा ( र्थात् वह गर्भ जिससे शूद्र जन्म लेता है ) क्यों पाया करता है ? सच है, 'ब्राह्मणों की धम- नियों में दूध नहीं बहता जहाँ शूद्रों में रक्तप्रवाह होता है ।” इस प्रकार का गौरव अपने श्राप पारोपित होने के कारण झूठा है। ईश्वर यदि ब्राह्मण को उच्चवर्ण के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहता तो उसके ललाट पर जन्म से ही तीन तिलक बना कर उसे भेजता, जिन्हें वह अपना विशेषाधिकार माना करता है।* उनके सम्पर्क में श्राकर उनके कई समकालीन शूद्रों ने अपनी जाति को महत्व देना सीख लिया था। दास ने गर्व के साथ कहा था कि मैं जाति का चमार हूँ और मेरे कुटुंब- चाल श्राज भो बनारस के पास पास मत पशुओं को ढोते हुए देखे जाते हैं If निर्गुण मत ने शूद्रों के भद्दे श्राचरणों में सुधार किये. उन्हें धर्म के प्रति श्रादर का भाव प्रदार्शित करना सिखलाया, उनके लिये भक्ति का द्वारा उन्मुक्त कर दिया और और उनके भीतर प्रारम सम्मान की भावना भी भर दी।

  • जो तू बाभन बभनी जाया, आनबाट ह क्यों नहिं आया ।

जो पै करता वरण विचार, तौ जनमत ही डाँड़ि किन सारै ।। कं० ग्रं० १०४ । नागर जन मेरि जाति चमारं 'मेरी जाति कुट बंढला ढोर ढोवतं । बनारसी आस पासा। 'ग्रंथ साहब' पृ० ६६७--८ ।