२८६ 'हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय
- इसी भाँति हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच मेल कराने की
चेष्टा द्वारा भी निर्गुणियों ने अविरोध व सहनशीलता का क्षेत्र तैयार किया । इसमें संदेह नहीं कि आरंभ में इस आन्दोलन का विरोध हुआ। कबीर, सिकन्दरलोदी-द्वारा, धर्म विरोधी विचारों के ही लिए दण्डित किये गये थे, किंतु इस प्रकार के विरोध से उस आन्दोलन को शक्ति ही मिलती गई और, समय पाकर इन विचारों के कारण, उन उपदेशकों के शुद्ध होने की जगह बादशाहों ने उन्हें सम्मानित करना प्रारम्भ किया। अकबर ने दादू को मन्त्र का उपदेश देने के लिए श्रादरपूर्वक आमन्त्रित किया था। अकबर के शासनकाल का अविरोधी भाव नवीन विचारों से प्रभावित वायुमण्डल का ही परिणाम था । इसी नवीन विचार ने ही अकबर को सबका खोजी समाज-सुधारक एवं सहनशील सम्राट् बना दिया और इसी में उसकी महत्ता भी निहित थी। वास्तव में इसी विचार के आधार पर भारतीय एकता का वह चिरस्थायी सूत्र ( जिसमें न केवल हिन्दू-मुसलिम ही प्रत्युत ईसाइयों को लेकर सभी प्रकार के भिन्न धर्मवाले भी बाँधे जायेंगे ) बटा जा सकता है। यदि इस प्रकार की एकता जिसका अकबर के समय में उज्ज्वल भविष्य दीख पड़ता था प्राप्त नहीं हो सकी, तो उसका कारण यह है कि निर्गुण मत के जिस संदेश से अकबर ने लाभ उठाया था वह विस्मृत हो गया है फिर अकबर भी उसके लिए उतना योग्य न था। उसकी खोजवाली प्रवृत्ति से उसकी राजसी वृत्ति दृढ़तर सिद्ध हो गई और धार्मिक वातावरण को उसने राजनीतिक उद्देश्य का साधन बना डाला । इस विषय में उसे मंत्रणा देनेवाले अबुलफजल एवं फैजी नामक सूफी बन्धुओं ने सत्य की अपेक्षा अपने स्वामी की स्वच्छंद वृत्ति की ओर ही अधिक ध्यान दिया। इसका परिणाम दीनेइलाही के रूप में लक्षित हुश्रा और उस राजकीय धर्मोपदेशक ने हिंदू धर्म व इस्लाम को एक साथ निचोड़ कर उसके द्वारा अपने साम्राज्य को ।