( १० ) हुए और उन्होंने इसे एक उच्च कोटि की रचना के रूप में स्वीकार कर 'लिया। इस प्रकार सं० १९६० में इन्हें "दि निर्गुन स्कूल आव हिन्दी TEST' ('The Nirgun School of Hindi Poetry') शीर्षक थीसिस के आधार पर डी० लिट० की डिग्री मिली । तबसे इनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक हो चली और इनका समादर भी होने लगा। 'गढ़वाल साहित्य परिषद्' के ये स्थायी प्रधान चुन लिये गये, हिंदी साहित्य सम्मेलन के सं० १९६४ वाले अधिवेशन की साहित्य-शाखा में निबन्ध पाठ के लिए विशेष रूप से आमंत्रित किये गये और प्राच्यविद्या सम्मेलन के तिरुपति ( मद्रास ) वाले सं० १६६७ के अधिवेशन में इन्होंने हिंदी-विभाग के सभापति का आसन ग्रहण किया। इस बीच में, 'काशी हिंदू विश्वविद्यालय' का अध्यापन कार्य छोड़कर सं० १९६५ में, ये लखनऊ विश्वविद्यालय चले गये और वहीं के हिंदी-विभाग में प्राध्यापक होकर, अपनी साहित्य सेवा करते जा रहे थे । वहां पर भौ विद्वत्ता के कारण विद्यार्थियों और सहयोगियों के बीच इनकी बड़ी अच्छी प्रतिष्ठा थी। किन्तु विधि का विधान कि उनका स्वास्थ्य धीरे- धीरे गिरता गया । सं० २००० वि० के फाल्गुन मास में इन्होंने अव- काश ग्रहण किया और घर आने पर सं० २००१ के श्रावण मास की शुक्ला चतुर्थी को इनका देहावसान हो गया। डॉ० बड़थ्वाल की मनोवृत्ति उनके जीवन भर, सदा साहित्यिक कार्यों को ओर ही उन्मुख रही । उनके निजी पुस्तकालय की ग्रंथ सूची के देखने से पता चलता है कि उन्होंने अनेक बहुमूल्य हस्तलेखों का एक अच्छा सा संग्रह जुटा रखा था। वे बराबर हस्तलिखित प्राचीन हिंदी ग्रंथों की खोज में रहते, उन्हें परिश्रम के साथ पढ़ा करत, उन पर मनन करते और अपने विचारों की टिप्पएियाँ तैयार किया करते । ऐसे साहित्य का गम्भीर अध्ययन और अनेक प्रकाशित ग्रंथों का पालो- चनात्मक विवेचन ही उनके जीवन का प्रमुख उद्दश्य रहा । तदनुसार
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