तथा सं० १९८६ में एल-एल्० बी० भी कर लिया। एम् ०ए० की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में प्रथम आये और इसके लिए जो इन्होंने एक विस्तृत निबन्ध 'छायावाद' शीर्षक से लिखा था वह बहुत विद्वत्तापूर्ण सिद्ध हुआ । बा० श्यामसुन्दरदास जो उससे इतने प्रभावित हुए कि उसके पुरस्कार में उन्होंने इन्हें अपने हिंदी-विभाग के अन्तर्गत शोध कार्य पर नियुक्त कर लिया । तबसे यह साहित्यिक खोज का कार्य भी बड़े मनोयोग के साथ करने लगे । फिर सं० १९८७ में इन्हें उसी विभाग में लेकचरर भी बना दिया गया। अध्यापक पीतांबरदत्त को अब, हिंदी-साहित्य के गम्भीर अध्ययन के साथ-साथ उसके विवेचन का भी सुयोग मिलने लगा और इनके विचारों में क्रमशः प्रौढ़ता आने लगी। हिंदी-साहित्य के विद्यार्थियों के समक्ष ये कभी-कभी अपनी नवीन खोजों के आधार पर भी व्याख्यान दिया करते थे और इनकी नित्यप्रति बनती जानेवाली साहित्यिक धारणा क्रमशः निखरती चली जाती थी। इसी समय, इनकी खोज-सम्बन्धी लगन को देखकर, 'काशी-नागरी- प्रचारिएी सभा' ने भी इन्हें अपने खोज-विभाग का संचालक नियक्त कर लिया। वहाँ पर इनके तत्त्वावधान में महत्वपूर्ण हस्तलिखित ग्रंथों का पता लगा और उनकी रिपोर्ट तैयार करते समय, इनके साहित्यिक ज्ञान के विस्तार में और भी सहायता मिली। अपने उपर्युक्त शोध-कार्यों से प्रोत्साहन पाकर ही इन्होंने हिंदी- ' काव्य की 'निर्गुणधारा' पर एक थीसिस लिखने का विचार किया। यह कार्य एक ऐसे क्षेत्र में करना था जो उस समय तक भी बहुत कुछ उपेक्षा की ही दृष्टि से देखा जा रहा था और इस कारण, उसे हाथ में लेना एक प्रकार का नवीन प्रयत्न भी कहा जा सकता था। फिर भी इन्होंने उक्त विषय पर पूरे परिश्रम के साथ काम किया और अपनी सच्ची लगन व अध्यवसाय के कारण, इस कार्य में सफल भी हो गये। इनके द्वारा प्रस्तुत किये गये निबन्ध से इनके परीक्षक भी बहुत प्रभावित
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