सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२६२ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय तैयार कर दिया जाय । हृदय से अहंकार को हटा कर उसे निरा दिया जाय तथा अपनी अयोग्यता एवं पापीपन को प्रख्यापित कर दिया जाय । जब तक कोई आत्मनिरीक्षण का अभ्यास न कर ले तब तक वह आध्यात्मिक मंडली में प्रवेश पाने की प्राशा नहीं कर सकता । आत्म: निरीक्षण के विषय में कबीर कहते हैं "मैं बुरे मनुष्य की खोज में निकला तो कोई भी मुझे बुरा न दीख पड़ा किन्तु जब मैं अपने हृदय को ही टटोलने लगा तो मुझसे अधिक बुरा कोई न मिला ।"+ इसी भाव के साथ दादू ने भी कहा है कि "सारे विश्व में केवल मैं ही एक सबसे बड़ा पापी हूँ, मेरे पाप इतने हैं कि उनकी गिनती करना असंभव है।" पश्चात्ताप करने के लिए यह आवश्यक नहीं कि पाप किया गया। हो। इतना ही पर्याप्त है कि ऐसी कुछ संभावना है जो कार्य में परिणत हो सकती है और इसमें संदेह नहीं कि मानवी हृदय में ऐसी संभावनाएँ सदा विद्यमान रहा करती हैं। जब तक, उस पश्चात्ताप के साथ जो कबीर एवं दादू की उपर्युक्त साखियों से व्यक्त होता है, उसकी संभावना का बीज नष्ट नहीं होता और मनुष्य उस विशुद्ध दशा को प्राप्त नहीं कर लेता जिसमें पहुँच कर कबीर यहाँ तक कहने योग्य हो गये थे कि “मैंने अपनी चादर (शरीर) उसी स्वच्छ दशा में उतार डाली है जिस दशा में वह मुझे प्रोदने के लिए मिली थी, यद्यपि देवा व मुनिगण तक उसे बिना किसी धब्बे के नहीं रख सके थे।": बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय । जो दिल खोजों आपना, मुझसा बुरा न कोय ।। क०, बा० पृ०६०। महा अपराधी एक मैं, सारे इही संसार । अवगुण मेरे अति घने, अंत न आवे पार ।। बानी, भाग १, पृ० २४६ ।

  • क० बा० २२३ पृ० १८७ ।