२६१ चतुर्थ अध्याय होने के कारण उसे किसी निंदक से डरने की आवश्यकता नहीं । अपनी निंदाओं द्वारा वह हमारी उन कमियों की सूचना देता रहता है जिनसे हमारे परास्त होने की संभावना रहती है और इस प्रकार वह हमें सदा उनसे बचाये रहा करता है। और यह सब वह बिना किसी पारितोषिक के ही किया करता है। परन्तु जो कोई आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करना चाहता है, उसे किसी दूसरे की निंदा करना कदापि उचित नहीं, क्योंकि इसके द्वारा हमारी आँखें बुराई के उपयुक्त हो जाती हैं और उन भलाइयों की ओर से मूंद जाती हैं जो किन्हीं दूसरों में पाई जा सकती हैं और जिनका प्रभाव हमारे ऊपर दूसरे प्रकार से अच्छा भी हो सकता था। अतएव साधक को चाहिए कि दूसरों का छिद्रान्वेषण करने की जगह केवन अपने ही दोषों को देखा करे और उन्हें दूर भी करे। उसे अपनी अंत- दृष्टि इसलिए नहीं फेंकनी चाहिए कि वह अपने दोषाभावों को छिपाये, बल्कि उन्हें ईश्वर के प्रति स्पष्ट शब्दों में प्रकट करे । जब तक कोई मनुष्य अपने पापों को अपनी आत्मा के अंधकार में छिपाने का प्रयत्न नहीं करता तब तक वे वृद्धि पर रहते हैं किन्तु अपना हृदय ईश्वर के सम्मुख खोलते ही उसके भीतर ईश्वर प्रकाश व्याप्त हो जाता है और उसके पाप, पश्चात्ताप की भावना के साथ अज्ञान सहित नष्ट हो जाते हैं सुधार का चिह्न सबसे प्रथम व निश्चित वह प्रेरणा ही है जो हमें, हमारे हृदय के भीतर हूँढ़ने को ओर प्रवृत करती है और अपने दोषों को प्रकट करने की इच्छा भी प्रदान करती है। आध्यात्मिक जीवन के बीज के अंकुरित होने के लिए यह आवश्यक है कि उसके लिए क्षेत्र भली भाँति
- निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय ।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करै सुभाय ।। वही पृ०, ६०॥