चतुर्थ अध्याय २६७ इस प्रकार ईश्वर की इच्छा को पूर्ति के करने का तात्पर्य आत्म- विश्वास हैं और उसके कारण अपनो जीविका के लिए काम करने की श्रावश्यकता नष्ट नहीं होती । दूसरों पर भरोसा करना ईश्वर को तथा अपने को अपमानित करना है। एक संन्यासी योगी के प्रति गुरु अंगद ने कहा था-"क्या तू परमेश्वर के सिवाय दूसरे से माँगने में लजित नहीं होता ?"+ भीख मांगने से प्राध्यात्मिक पतन हो जाता है। कबीर के अनुसार, "जब कभी कोई अपने हाथ माँगने के लिए फैलाता है उस समय उसके मान, महत्व. प्रेम, गौरव एवं स्नेह सभी उसका साथ छोड़ देते हैं।"* कबीर ने एक बार यह भी कहा था कि "माँगना मरण के समान है।"+ शिवदयाल अाधुनिक साधुओं को उनके अपने परिवार, उद्योग-धंधादि त्याग करने तथा व्यर्थ का घुमक्कड़ जीवन व्यतीत करने के कारण भर्त्सना किया करते थे। श्रम के साथ नीचता का कोई संबंध नहीं । “उद्योग में कोई दोष नहीं यदि उसे कोई करना जान जाय, उस श्रम में उल्लास भरा रहता है जो ईश्वर के लिए किया जाता है।" कर्म यद्यपि हमारे लिए जन्म व मरण के बंधन में पड़ने का कारण बन जाते हैं क्योंकि अपने कर्म का फल भोगने के लिए ही हमको बार-बार जन्म लेना पड़ता है) फिर भी, हिंदू धर्मानुसार, पुनर्जन्म का सिद्धान्ततः न्यायसंगत होना अकर्मण्यता-द्वारा असिद्ध नहीं किया जा सकता। कोई भी सभी प्रकार से अकर्मण्य नहीं रह सकता । स्वयं + नाथ छोड़ि जाँचे, लाज न आवै । वही पृ० ४७८ । मान महातम प्रेम रस, गवतिरण गुण नेह । ये सबही अलहा गये जबहि कहा कुछ देहु ।। क० ग्र० पृ० ५६ । + माँगन मरन समान है। वही पृ० ५६ ।
- सारवचन भा० १, पृ० २६५ ।