पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३८०

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2 1 २६८ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय अकर्मण्य रहना ही कर्म करना है। भविष्य की कामना स्वयं कर्मों में नहीं रहा करती, वह उस प्रवृत्ति में रहती है जो उसे प्रेरित किया करती है। स्वार्थ नहीं प्रत्युत स्वार्थपरता ही सब किसी को भवजाल में डाला करती है। बिना स्वार्थ के किये जानेवाले कार्य यदि "ईश्वर के निमित्त संपादित किये जाते हों तो उनमें भविष्य के लिए कोई अंकुर नहीं रहता।" जब कबीर कहते हैं कि, "मैंने अपनी करणी से ही कर्म का नाश कर डाला।" तो वे उन कर्मों की ही चर्चा करते हैं जो ईश्वर के लिए किये जाते हैं और जिनमें, इसी कारण, प्रेम व त्याग का संयोग बना रहता है। अनासक्तिपूर्वक किये गये कर्म मनुष्य को इस संसार से मुक्त कर देते हैं । कबीर ने कहा था कि, “मैं सभी कर्मों को करता हुआ भी उनसे पृथक् हूँ ।” निर्गुणियों का श्रम के संबंध में निर्धारित किया हुआ सिद्धान्त नामदेव तथा त्रिलोचन की उस बातचीत से स्पष्ट हो जाता है जिसका उल्लेख कबीर ने किया है और जिसमें त्रिलोचन के इस दोषारोपण पर कि सांसारिक प्रेम ने उन्हें मोहित कर लिया है और वे अभी तक छीपी का काम करते हैं, नामदेव ने कहा है कि "हे त्रिलोचन तुम होठों से राम का नाम स्मरण करो और अपने सभी कर्तव्य हाथ-पैर से करते चलो। अपना हृदय ईश्वर से ही संबद्ध रक्खो।"+ । उद्दिम औगुण को नहीं जौ करि जानै कोय । उद्दिम में आनंद है जे साईं सेती होय ।। 'बानी'

  • करणी किया करम का नास ॥ ३२६ । क० ग्रं०१० २००।

+ नामा माया मोहिया कहै तिलोचन मीत । काहे छापै छाइ लै राम न लावै चीत ।। नामा कहै तिलोचना मुखाँ राम सँभालि । हाथ पाँव कर काम सब, चित्त निरंजन नालि । 'ग्रंथ साहब' पृ० ७४०-४१ ।