'हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय लिए पर्याप्त हो । वास्तव में वे किसी कमी का अनुभव क्यों करें ? जब सब कुछ का देनेवाला उनके साथ सदा बना रहता है।"+ कबीर ने कहा था कि "उस धन का ही संग्रह करो जो जीवन के अनंतर भी उपयोग में आवे और उसके द्वारा उन्होंने प्राध्यात्मिक साधना की ही आवश्यकता दिखलाई थी। बाबालाल ने दाराशिकोह को ईश्वरीय ज्ञान का उपदेश देते हुए कहा था कि "बिना कामना, बिना संयम और बिना भाव के ही फकीर का जीवन व्यतीत होना चाहिए।" निर्गुणी प्रभाव का स्वागत नहीं करते । निर्धन को केवल ईश्वर-प्राप्ति को एक अनुकूल स्थिति मात्र मानते हैं। निर्धनता का तात्पर्य साधना भाव से नहीं प्रत्युत त्याग की उस भावना से है जो एक ओर जहाँ दारिद्र की कटुता को दूर करती है वहाँ दूसरी ओर वैभव के कारण उत्पन्न होनेवाले उत्तरदायित्व के समान ही है। निर्धनता के दो प्रधान अंग हैं संतोष एवं उदारता "संतोष के सामने सभी प्रकार के धन धूल के समान हैं।": फिर भी अपने संतोष का प्रयत्न या उपक्रम के साथ कोई विरोध नहीं है और उदारता ही सच्चा धन है। धनी होने का अर्थ वैभव का अपने अधिकार में लाना नहीं है वह एक मानसिक वृत्ति मात्र है। अपनी संपत्ति से संतुष्ट न रहनेवाला व्यक्ति विपुल वैभव का स्वामी होता हुआ भी दरिद्र कहा जा सकता है। उदारता के साथ साथ उसका अपना । + आगे पीछे हरि खड़ा जब माँगे तब देय । सं० बा० सं०, पृ० ५७ । < वह धन संग्रह की जिये जो आगे कू होय । ॥ १३ ।। क० ग्रं॰, पृ० ३३ ।
- गोधन गजधन वाजिधन, और रतन धन खान ।
जब आवै संतोष धन, सब धूरि समान ।। सं० वा० सं०, भाग १ पृ० ५३१ ।