पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/३८१

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चतु अध्याय २६६ परिश्रम के बिना प्राप्त की हुई कोई भी सिद्धि एक राक्षसी व्यापार होता है और उससे लोभ की वृद्धि होती है। आलस्य से लोभ की ओर बढ़ना केवल एक ही पग है। निर्गुणी भी ठीक टाल्स्टाय के ही समान सभी प्रकार के धनसंग्रह से घृणा करते हैं जिसमें केवल लोभ ही लक्षित नहीं होता बल्कि जिससे आलस्य को भी प्ररणा मिलती है कल की आवश्यकताओं के लिए अाज ही प्रबंध कर लेना अागामी श्रालस्य में मग्न हो जाना है। धन-संग्रह की भावना ईश्वरानुभूति के मार्ग का रोड़ा बन जाती है । जमा करने के लिए जुटाने में आखिर अच्छा ही क्या है। मनुष्य अपने जीवन भर कमाने और अपने धन की वृद्धि करने के प्रयत्न करता है-धन एकत्रित करता है, घर बनाता है भूमि क्रय करता है किंतु अपने साथ क्या ले जाता है ? हाथ बाँधे हुए आता ह और खुले हाथ चला जाता है।" बल्कि विक्रम, भोज एवं बिसालदेव तक राजा भी इस बात के साक्षी हैं।"+ स्वार्थपरक पूरक धन की कामना के अपने हृदय में जागृत होने पर स्वयं कबीर अपने आप प्रश्न करते हैं - 'मैं ऊँचा घर क्यों बनाऊँ ? मेरा घर तो ( यह शरीर ) साढ़े तीन हाथ का लंबा है। हे मनुष्य अपनी संपत्ति का गर्व न करो। अंत में तुम्हें (अपनी कब्र के लिए) उतनी ही भूमि की आवश्यकता पड़ेगी जिसका विस्तार तुम्हारा शरीर ढकने के काम के लिए पर्याप्त होगा।"x इसी भावना को टाल्स्टाय ने अपनी "मनुष्य को कितनी धरती चाहिए" नाम की कहानी में बड़ी सुन्दरता के साथ विकसित किया है। सत्य, वस्तुतः सर्वत्र सत्य ही है। निर्गुणी इस प्रकार उससे अधिक की इच्छा नहीं करते जिसका उनके परिवार के तथा उनके अतिथियों के + कबीर ग्रंथावली २६६ पृ० १२८ । x वही ३६१ पृ० २०८ ।